आम का ज़ायका : बल्ले-बल्ले
आम का ज़ायका! वाह! नाम सुनते ही खुशबू और खुशी के मारे झुरझुरी होने लगी. यह खुशी हो भी क्यों न, क्यों कि फलों के राजा की बात जो हो रही है! फलों के राजा आम की वैराइटी भी तो देखिए! सफेदा, मलिहाबादी, दशहरी के साथ देसी, लंगड़ा, चौसा, फज़ली, सिंदूरी, अल्फांज़ों, रत्नागिरी, तोतापुरी, मालदा आदि.
आम की बात बाद में, पहले बात ज़ायके की. ज़ायका हर चीज़ का होता है. ज़ायका खारा-खट्टा, फीका-चरपरा, मीठा-नमकीन आदि होता है. शब्दों का भी अपना ज़ायका होता है, जो बोलने वाले के व्यक्तित्व और सुनने वाले के मन अक्स का पता दे देता है.
‘कुछ शब्द नशीले होते हैं…
और कुछ होते हैं हठीले,
शब्दों की क्या बात करें हम…
सावन में हो जाते हैं सजीले,
शब्दों का भी चढ़ता है खुमार,
शब्दों से है हमें स्नेह अपार.’
बात आम के ज़ायके की जाए, आम का ज़ायका खास होता है.
आम के ज़ायके की दो विशेषताएं उल्लेखनीय हैं, स्वाद और खुशबू. आम के ज़ायके की खुशबू को फ्लेवर के नाम से जाना जाता है. खरीदते समय ही आम की खुशबू यानि फ्लेवर का पता लग जाता है. आम जब अपने बगीचे के हों, तो कहना ही क्या!
भारत-विभाजन के बाद हम जब राजस्थान के बहुत-से शहर घूमकर जयपुर आए, तो हमारे पापा जी के पास सिंध के बंगले का प्रमाण पत्र था, जिसे हम छोड़ आए थे. उसी प्रमाण पत्र के आधार पर हमें 500 गज जमीन मिली, जिसमें एक ओर आम के दो बड़े-बड़े पेड़ थे. पापा जी ने उस हिस्से को छोड़कर आधी जमीन पर बंगला बनवाया. आम के उन पेड़ों की कहानी निराली है. एक साल आम एक पेड़ पर आते थे, दूसरे में दूसरे साल! इस तरह हमें हर साल अपने आम के पेड़ों के सफेदा आम खाने को मिलते थे. पापा जी आम तोड़ने वाले खांचे से हौले-हौले आम तोड़ते थे, फिर उन्हें बड़े स्नेह से सहलाकर खिड़की पर सजाकर रखते थे. बारी-बारी से पकते जाने पर खाने के लिए निकालकर देते थे. पड़ोसी भी इन पेड़ों के आमों का ज़ायका लेकर खुश होते थे.
पापा जी के अद्भुत ज्ञान के हम शैदाई थे. एक दिन एक ठेले वाला “बाबूजी लंगड़ा, बाबूजी लंगड़ा, बाबूजी लंगड़ा, बाबूजी लंगड़ा आम ले लो” की सुरीली धुन लगाता जा रहा था. हमने पापा जी से पूछ लिया कि यह ठेले वाल “बाबूजी लंगड़ा आम ले लो” क्यों कह रहा है? क्या आम भी लंगड़ा होता है?
“नहीं बेटा आम लंगड़ा नहीं होता,” पापा जी ने कहानी शुरु करते हुए कहा. “गुजरात के एक मंदिर का पुजारी लंगड़ा था. उस मंदिर में एक ही ज़ायके के आमों के बहुत-से पेड़ थे. पुजारी प्रसाद में सबको आम देता, जो उन्हें वहीं खाकर गुठली पास रखे एक टिन में डालकर जानी थी. उन गुठलियों को फिर बोया जाता और ढेर सारे आम के पेड़ हो गए. आम की पौध किसी को नहीं दी जाती थी. पुजारी के स्वर्गवास के बाद वह नियम टूट गया, आम की पौध बाहर भी जाने लगी. आम का नाम लंगड़ा पड़ गया. कहानी सुनकर हम भाई-बहन भी “बाबूजी लंगड़ा, बाबूजी लंगड़ा” की धुन लगाने लग गए.
आम के ज़ायके की बात ही निराली है! जितनी किस्में, उतने स्वाद और हर स्वाद की अपनी भाषा.
“आम का अचार बनाइए,
आम का मुरब्बा खाइए,
आम का पापड़ खाईए-खिलाइए,
आम से बनी बर्फी से मेहमानवाजी कीजिए,
आम का पन्ना बनाकर गर्मी को दूर भगाइए,
हां, आम खाने से थोड़ी देर पहले
आम को पानी में अवश्य भिगोने रखिए,
आम की गर्मी भगाइए, आम का स्वाद बढ़ाइए,
आम खाइए, आंखों की रोशनी बढ़ाइए, अच्छा स्वास्थ्य पाइए.”
अब आप आम खाइए, हम भी आलेख को विराम देते हुए आम खाने-खिलाने जा रहे हैं. आम और खास को पसंद आने वाले फलों के राजा भारत के राष्ट्रीय फल की जय हो.
आम का ज़ायका : बल्ले-बल्ले
— लीला तिवानी