मानव नहीं दरिंदे हैं हम
मानव नहीं दरिंदे हैं हम,
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम,
प्यास हमारी जिस्मानी है,
हैवानी पर जिंदे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
कहने को बस अपनापन है,
कत्लेआम रे वहशीपन है,
रोज-रोज का पेशा अपना,
कहने को शर्मिन्दे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
हवस के भूखे-प्यासे कि
गिद्ध-सा नोंचे लाशें कि
बहन-बेटियाॅं जीएं कैसे
इतने अच्छे गंदे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
स्त्री करे पुरुष का पोषण
पुरुष करे स्त्री का शोषण
कौन मुखर हो इस मुद्दे पर
गूंगे, बहरे, अंधे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
पेड़-फूल परमार्थ वास्ते
खोल दिए कितने ही रास्ते
हमसे अच्छे पशु-पक्षी हैं
पाप-कर्म के बन्दे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
जाति-धर्म के महाशर्त में
ऊंच-नीच के महागर्त में
सरे-राह मानवता का
गला घोंटते फन्दे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
अपनी माॅं ही माॅं लगती है
और कोई चुम्मा लगती है
ऐसी है मानसिकता अपनी
भारत के बाशिंदे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम।।
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— नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’