सोने की चिड़िया ( व्यंग्य)
आजकल ऐसा लग रहा है, आठ – दस महीने बाद देश में दूध की नदियाँ बहने वाली है। मोहल्लों की नालियों में गंगा की धारा प्रवाहित होगी। तालाबों में दही जमा मिलेगा। हर दरवाज़ों पर शाम, घी के दीपक आलोकित होंगे। आँगन में लगे पेड़ों पर सोने की चिड़ियाँ चहकेंगी। कान के पास मच्छर-मक्खियों की भनभनाहट भी राग मालकौंस का आनंद देगी। गाय के गोबर से भी सोने की गिन्नियाँ बनेगी। जून की गरमी झुलसाने वाली नहीं, अपितु शीतलता के लेप लगायेगी। अगले साल से बरसात में गड्ढेदार सड़कें कीचड़ के स्थान पर मक्खन उगलेगी। कठोर ठंड में हिमपात मलाईपात होनेवाला है। देश का हर युवक और युवती जिले के कलेक्टर से कम की स्तर की नौकरी पर होगा। इतने सारे कलेक्टर की नियुक्ति के लिए हर घर को तत्कालीन सरकार जिला घोषित कर देगी। मज़दूर भी सूट पहनकर ईंट उठायेगा, नींव खोदेगा। श्रमिक बालाएँ सोलह श्रंगार के साथ सिर पर टोकनी और घमेले सजाकर खेतों-खलिहानों और सड़कों के निर्माण में अपना योगदान दे रही होंगी। गरीबों का देश से समूल विनाश होनेवाला है। गरीबी की कोख जो उजड़ने वाली है। भारत की सड़कों पर भ्रमण करनेवाले सुदामा जागते – सोते इसी पंक्ति को गुनगुनाता मिलेगा कि – “कैंधो परयो कहिं मारग भूलि कि , फेरि कै में द्वारिका आयो।” आप शायद मेरी बात मज़ाक लग रही होगी। अरे जनाब यह सपना नहीं सच है। ऐसा कौन सा देश होगा जहाँ पक्ष और विपक्ष सब मिलकर अपने देश को उक्त वर्णन के अनुसार जामा पहनाने में लगा होगा? ऐसा एक ही देश इस अखिल ब्रम्हांड में है, वह है – भारत।
कितनी पवित्र और सात्विक भावनाओं से देश इस समय गुज़र रहा है। सब नेता देवता बने घूम रहे हैं। कुछ राक्षसों को श्राप दे रहे हैं तो कुछ भक्तों को वरदान। राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट। कुछ देवता तो महर्षि दुर्वासा के वंशज लग रहे हैं। मारे क्रोध के बेचारे भस्मासुर तक बनने को तैयार हैं। मन में यही मंगल भाव विराजमान है कि देशवासियों का किसी भी तरह भला हो जाए। आत्म उत्सर्ग की ऐसी उदात्त और उत्कट भावना और कहीं मिलेगी कि जनकल्याण के भले के लिए पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारी जा रही बल्कि कुल्हाड़ी पर ही पैर रख दिया गया हो। धन्य है भारत भूमि जहाँ नेत के रूप में आज भी दधीचि जन्म ले रहे हैं।
देश में ऐसा उदात्त और सात्विक परिवेश चुनाव के पावन मुहूर्त में ही दृष्टिगत होता है। ये बात और है कि इस पवित्रता को बनाये रखने के लिए बलात्कार, सांप्रदायिक हिंसा, लूटमार, दंगे जैसे छोटे – बड़े यज्ञों का आयोजन होता रहता है। धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत देशवासी इस यज्ञ में अपने – अपने ढंग से आहुतियाँ डालते हैं। ये लोकतंत्र का उत्सव है। उत्सव में थोड़ी – बहुत भगदड़ तो होती ही है। पवित्रता बनाये रखने के लिए सभी को योगदान तो देना होगा।
शब्दों के तीर चल रहे हैं। भावनाओं के बम फोड़े जा रहे हैं। वाक्यों के थप्पड़ जड़े जा रहे हैं। सारे अस्त्र – शस्त्र, ब्रह्मास्त्र क्रियाशील है, इस देश के “दरिद्रों” को “नारायण” बनाने के लिए। कोई भारतमाता की हत्या कर रहा है तो कोई हत्याएँ कर भारतमाता को बचाना चाह रहा है। कितना अलौकिक दृश्य है!!! सच में देश अगले वर्ष तक पुनः “सोने की चिड़िया” तो बन ही जायेगा।
— शरद सुनेरी