ममता की मूरत”
वसुंधरा जी पहली बार अपने बेटे के साथ हैदराबाद तक का सफर, वह भी फ्लाइट में कर रही थीं । विंडो सीट खास कर उन्होंने पसंद किया था ।
“क्या देख रही हैं अम्मा ?”
उनकी तन्मयता भंग हुई, बेध्यानी में निकल गया- ” ‘दिल बाग-बाग हो गया’ मैं हमेशा से तेरे पिताजी को कहती थी, ‘पूत के पांव पालने में ही नज़र आते हैं’ तेरे जन्म के बाद से ही तुझे आम बच्चों की तरह धूल में खेलना बहुत पसंद था । सच में ‘तू मेरा धूल का फूल है ।”
“माँ आप क्या क्या बोल रही हैं मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है ।”
“बेटा भूल हो गई–’सच में बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’ मैं खिड़की से बाहर बादलों के ऊपर उड़ते हुए अपने कोख-ज़ाये की उपलब्धि पर ‘फूली नहीं समा रही’ थी । असीम आनंद अनुभव कर रही हूँ ।”
“अच्छा ! तभी मैं कहूँ माँ शुन्य में गूम सी क्यों हो गई हैं ?”
“बेटा ‘आकाश में उड़ना’ सच में तुमने महसूस करा दिया, जब मैं तुम्हें ऊंची शिक्षा के लिए स्वयं से दूर कर रही थी तो तेरी दादी ने कहा था– “बहू ‘तेरा खून पानी हो गया है’ तेरी महत्वाकांक्षा ही ‘तेरी ममता की दुश्मन’ बनेगी । ‘तेरी आँखों का तारा’ पढ़-लिख कर वापस लौट कर जिस दिन आयेगा उस दिन तुम ‘घी के दीये जलाना’ वरना ‘मेरा मरा मुंह देखना’ पहले की माँएं अपने बच्चों को सदैव ‘आँचल की छांव में’ रखना चाहती थी, काश तेरी दादी आज ज़िंदा होती ।”
“हाँ माँ आपने सही कहा, आज मैं जो कुछ भी बन पाया हूँ, वह आपकी ‘तपस्या और त्याग का फल’ है ।”
“अच्छा यह तो बताओ तुमने अपने लिये जीवन-संगिनी ढूँढ़ ली है क्या ?”
थोड़ा शरमाते हुए हाँ माँ– “आपकी बहू ‘चांद सी है’ ।”
“हाहाहा…बेटा ‘आप भला तो जग भला’ तुम तो मेरी ‘आँखों का तारा’ हो, ‘अंगूठी में नगीने’ सी बहू मिल गई, फिर तो मेरे ‘दोनों हाथों में लड्डू’ है ।”
“माँ सचमुच आप खुश हैं ! फिर तो मुझे ‘जन्नत की चाहत’ नहीं ।”
— आरती रॉय.