कविता

माँ का आँचल

रात के अंतिम प्रहर में

शिशु  रूप में

स्वप्न में देखा अपने आपको

बेपरवाह माँ के आँचल से खेल रहा 

न दीन की न दुनियां की खबर 

बस मौज़ ही मौज़ 

न गम था न रंज 

फिर एक खटका हुआ

आंख खुल गई

धरातल पर आ खड़ा हुआ 

मैं  बिछोने पर था अपने 

न शिशु था न माँ थी 

लौट आया था वहीं अपने असल जीवन में 

जहां गम था चिंता थी

कल क्या होगा

इसकी फिकर थी

जितनी देर का स्वप्न रहा 

माँ के आँचल में 

निश्चिंत रहा

न गम था न कोई रंज

न कोई फ़िक्र न चिंता

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020