कविता

पितृपक्ष में फिर

लीजिए फिर आ गया पितृपक्षहमारे आपके लिए अपने पूर्वजों के प्रतिश्रद्धा भाव का नाटक दिखाने के लिएसिर मुड़वाते तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान करते हुएसगर्व फोटो सोशल मीडिया पर प्रसारित कराने के लिए।बड़ी बेशर्मी से अपने पूर्वजों के आगेनतमस्तक होकर शीश झुकाने ,उनकी आत्मा की कथित शान्ति के लिएआडंबर कर इतराने के लिए।अच्छा है कीजिए करना भी चाहिएकम से जीते जो न मान सम्मान कियान ही अपना धर्म कर्म किया।वो सब इन पंद्रह दिनों में जरुर कर लीजिए,जीते जी आखिर जिन पूर्वजों को आपनेभरपूर उपेक्षित अपमानित किया,बिना खाना पानी दवाई के जीते जी बिना मारे ही मार दिया या घर से निकाल दियाये सब नहीं कर पाये तो उन्हें अकेला मरने के लिए ही छोड़ दिया।फिर उनके मरने के बाद ही आयेऔर खूब घड़ियाली आंसू बहायेउनसे मिली आजादी का मन ही मन खूब जश्न मनाए,तेरह दिन मजबूरी में किसी तरह दिखावे में गमगीन रह पाएब्रह्मभोज में अपने नाते रिश्तेदारोंअड़ोसियों पड़ोसियों को विविध व्यंजन खिलाए,सबसे लायकदार होने का तमगा चस्पाकरहाथ झाड़ कर बड़ा संतोष पाए।आइए! पितृपक्ष में एक बार फिर हममन मारकर ही दिखावे के लिए ही सहीदिखावे की औपचारिकता तो निभाएं।किसी तरह जो पुरखे खुद को संभाल पाये हैंउन्हें फिर से कांटे चुभाएं और गुदगुदाएंउनकी आत्मा भी चैन से न रहने पाएपितृपक्ष में एक बार फिर अपनी लायकी का सबूतदुनिया को दिखाएं और पुरखों को फिर से रुलाएं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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