कविता

दिल

हम सबके पास ही तोएक प्यारा सा खूबसूरत दिल है,पर लगता है कि अपने ही दिल का हमें कोई मोह ही अब नहीं है।तभी तो हम पत्थर दिल हो गये हैं,अपने ही दिल की धड़कन नहीं सुन रहे हैंअपने ही दिल को तोड़ रहे हैं,खून के आंसू रुला रहे हैंइंसान कम जानवर ज्यादा लग रहे हैं।क्योंकि इंसानों सा व्यवहार अब हम कहां कर रहे हैं?अपने खान पान का न कुछ ख्याल कर रहे हैं,जान बूझ कर अपनी जान दे रहे हैंऔर दोष दिल के मत्थे मढ़ रहे हैं।अपनी कार्य संस्कृति को हम किस ढर्रे पर ले जा रहे हैं,दिल की हालत का न हम आंकलन कर रहे हैंआपाधापी और अधिक पाने की तृष्णा मेंहम अपने ही दिल को बीमार कर रहे हैंनाज़ुक दिल को मशीन मान रहे हैंउसके स्वास्थ्य पर कुठाराघात कर रहे हैंजिसका दुष्परिणाम हम खुद भुगत रहे हैंपर दिल की कराह को नहीं सुन रहे हैंया शायद हम बहरे हो गये हैं,दिल को शरीर का सबसे नाजुक हिस्सा नहीं बेजान पत्थर समझ रहे हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921