भौतिकता की चाह में पीछे छूटते रिश्ते
आजकल की भागदौड की जिंदगी में लगातार रिश्तों की अहमियत कम हो रही हैं। सभी लोग जैसे भाग रहे हैं और एक दूसरे से मानो कोई प्रतियोगिता-सी कर रहे हैं। पैसा कमाने की कोशिश में रिश्ते नाते पीछे छूट रहे हैं। आज के समय में हमारे पास ढेरों सुविधाएं हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं, आलीशान घर हैं परंतु रिश्ते नहीं हैं। पैसा और शोहरत कमाने में हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि हम अपने अपनों से दूर हो गए हैं। आज के समय में रिश्ते केवल स्वार्थ पूर्ति का साधन बन गए हैं। “काम खत्म रिश्ते खत्म”। दूर के रिश्तों की बात छोड़िए। आजकल तो माँ-बाप को भी पैसे के लिए इस्तेमाल किया जाता है। माना की समय बदल रहा है, शिक्षा का विस्तार हुआ है, समृद्धि आई है, परंतु साथ-साथ संस्कृति और संस्कारों का भी हनन हुआ है और इसी कारण रिश्ते नातों की अहमियत खत्म हो रही हैं।
जीवन दो-ढाई दशक पहले तक कई मायनों में बहुत ही सादगी भरा और दिखावे से कोसों दूर और वास्तविकता के बहुत पास होता था। तब मनुष्यता के जितने गुण सोचे और तय किए गए हैं, वे सब आसपास के परिवेश के दिख जाते थे। लेकिन आज सरलता और सहजता से दूर दिखावे और स्वार्थ से भरा हुआ जीवन ही ज्यादातर लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इसमें वयस्क या बुजुर्गों की तो दूर, हमने बच्चों तक को नहीं छोड़ा है। आजकल लोग अपने ख़ुशी में कम खुश और दुसरों की दुख में ज़्यादा खुश होने लगें हैं। आज़ शाय़द ही कोई युवा ख़ासकर जो बेरोजगार हैं , विद्यार्थी हैं अपने रिश्तेदारों से परेशान न हों। कारण, उनकी बेरोजगारी की चिन्ता जितनी उनके माता-पिता को नहीं उससे कहीं ज्यादा उनके रिश्तेदारों को होती है। जो पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं उनको भी यदा-कदा सुनने मिल जाता है कि बुआ जी, मामी जी आदि-आदि किसी से कह रहीं थीं कि लगता है बूढापें तक पढ़ता रहेगा।
न जाने क्या पढ़ रहा है आदि-आदि। और गनिमत तो तब हो जाती है जब उनका अपने बच्चों की नौकरी लग गई हो या कोई बिजनेस ही करते हों और रिश्तेदारों के हम- उम्र बच्चे बेरोजगार या अभी छात्र ही हों – कोई मौका छोड़ते नहीं तंज़ कसने का। लेकिन ऐसी स्थिति आयी क्यों ये सोचने वाली बात है – मेरे ख्याल से तो कारण एक ही है – हम खुद ऐसा ही करते है। लेकिन दुसरों से उम्मीद करते हैं कि उनका व्यवहार हमारे साथ अच्छा हो। रिश्तों की इस धूप-छांव में आत्मीयता की मीठी धूप पर आज स्वार्थ की काली बदली भी देखने को मिलती है। कड़ी प्रतिस्पर्धा ने इंसान को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया है। पहले किसी को उदास देखकर आसपास के लोग उससे कई सवाल पूछ डालते थे, पर आज अगर कोई अपनी परेशानियां शेयर भी करना चाहता है तो लोगों के पास सुनने का वक्त नहीं होता।
तभी तो आज परेशान लोगों को काउंसलर की जरूरत पड़ती है। भारतीय समाज तेजी से आत्मकेंद्रित होता जा रहा है, पर इसका कम से कम एक फायदा तो जरूर हुआ है कि मुश्किल में अगर कोई किसी की मदद नहीं कर पाता तो उसके निजी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करके उसे परेशान भी नहीं करता। आज हम अपनी जरूरतें अपने ही भीतर दफन करते जाते हैं तो कहीं गैरजरूरी बातों और चीजों को जीवन की जरूरत के रूप में अपना लेते हैं। वास्तविक जरूरतों को तवज्जो न देकर समाज में सबसे सर्वश्रेष्ठ और वैभव संपन्न बनने की चाह में न चुकता होने वाले अनचाहे असीमित कर्ज के बोझ तले दब जाने वाले लोगों को देख कर लगता है कि इस भूख की आखिरी मंजिल कहां होगी।
इस तरह जिंदगी के कुदरती रंग को खोते हुए बेमानी होड़ में शामिल होकर हम शायद यह ध्यान रखना भूल गए हैं कि इसके नतीजे भविष्य में बड़े दर्दनाक हो सकते हैं। यह वर्तमान में भी आसपास ही दिखने लगे हैं, जब अक्सर लोग इंसानी मूल्यो और संवेदनाओं के ऊपर अपने दिखावे की प्रवृत्ति को तरजीह देते दिखते हैं। या तो अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन उन्हें प्यारा होता है या फिर वे आभासी दुनिया के सुख को ही सच मान लेते हैं। जबकि इससे भावनाओं और संवेदनाओं की जमीन खोखली होती जाती है। सवाल है कि क्या ऐसे लोग खुद भी अपने साथ संवेदनहीन व्यवहार पसंद करेंगे? रिश्तों में संवेदनशीलता की परिभाषा बदली है। रिश्तों में आत्मीयता , संवेनशीलता में कमी आयी है।
मानव के अंतिम सफर में भौतिक दौलत नहीं काम आती है। मरे हुए व्यक्ति को यानी शव को चार कँधों पर यात्रा की जरूरत होती है। भौतिक संपदा संसार में ही रह जाती है। ताउम्र हमारे रिश्ते ही काम आते हैं जीवन के सफर में हर जन हमारे लिए उपयोगी है। बदलाव एक सहज प्रक्रिया है और इसे रोक पाना संभव नहीं है। सच तो यह है कि हर बदलाव में कोई न अच्छाई जरूर छिपी होती है। बस, जरूरत है उसके सकारात्मक संकेतों को पहचानने की।रिश्ते यानी संबंधों के प्रति संवेदनशील रहना यानी मानवीयता, प्रेम की कसौटी को बनाए रखना ही संवेदनशीलता को दर्शाता है। भारतीय संस्कृति और हमारे पूर्वजों ने, हर पीढ़ी दर पीढ़ी को रिश्तों के प्रति संवेदनशील रहना सिखाया है।
लेकिन इक्कीसवीं सदी की तकनीकी की सदी ने मानव को मशीनीकरण, पदार्थवाद के धरातल पर खड़ा कर दिया है। जिससे मानव के स्वार्थ में मैं का प्रादुर्भाव हुआ है। समाज में रहते हुए एकाकी जीवन जीना दुष्कर भी है और महत्वहीन भी। जब तक हम पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सौहार्द बनाकर नहीं रखेंगे, हमारी मुश्किलें और संघर्ष बढ़ते जायेंगे जो हमें अशांत, अस्वस्थ और दुःख की ओर ले जायेंगे, जिससे हम न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि पारिवारिक और सामाजिक रूप से भी विकसित और सम्पन्न होने में बाधित होंगे। अतः जीवन कैसा भी हो, हमसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी जनों के प्रति प्रेम, आदर और सहयोगी होना नितांत आवश्यक है।
जीवन में वही सफल और सुखी हो सकता है, जिसके अधिक से अधिक जनों से संबंध मधुर होते हैं और यह कार्य न कठिन ही है, न मेहनत का। बस,हमें उदार,त्यागी, उत्साही,स्नेही, स्पष्टवादी, सरल, सहयोगी, निःश्छल और मर्यादित होना है, हम इन गुणों में जितने संवेदनशील होंगे। हम उतने परिपक्व और सामर्थ्यवान होते चलेंगे। इससे हमारे रिश्ते मधुर और मजबूत होंगे जो हमारे जीवन संघर्ष में आने वाली स्वभाविक मुश्किलों से उबरने में हमारे सहयोगी बनेंगे। ये हमें आत्मीयता देकर हमें सदैव निराश और हताश होने से बचाते हुए हमारे रक्षा कवच बनेंगे और ऐसे ही हम उनके लिए भी होंगे। अतः हमें रिश्तों को स्थायी, मधुर और मजबूती के लिए सदैव सजग और संवेदनशील रहना है ताकि हम किसी भी प्रकार से कमजोर कड़ी साबित न हों।
सील रहे रिश्ते सभी, बिना प्यार की धूप।
धुंध बैर की छा रही, करती ओझल रूप।।
सुख की गहरी छाँव में, रहते रिश्ते मौन।
दुख करता है फैसला, सौरभ किसका कौन।।
— प्रियंका सौरभ