ग़ज़ल
ठोकरें मिलती रहीं हर बार मुझको
पर नहीं मंज़ूर हार मुझको
सोच हमने ही लिया जाएँ वहाँ हम
चाहिए ही तो नहीं तक़रार मुझको
बेवफ़ा वह हो न जाये डर लगे ही
आज भाता ही नहीं अवतार मुझको
कर बहाने वह तभी जाता रहा है
अब सुहाता ही नहीं किरदार मुझको
दे नहीं धोखा कभी यह अब कहें हम
क्यों नहीं ऐसा मिले दिलदार मुझको
देखते ही चल दिया रूठा हुआ वह
अब नहीं होगा किसी से प्यार मुझको
प्यार में तो चाहिए दम हर तरफ़ से
मिल सके इसका ज़रा आसार मुझको
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’