ग़जल
आंसू न रूके आंखों में बहते चले गये,
गम सारे जमाने का सहते चले गये ।
दिल में ही सिमट गई जो ख्वाब थी हसीन,
वो मुझको बेवफा ही कहते चले गये।
आंखों से ढ़लते अश्क ने कह दी थी कहानी,
दहलीज पर वे दिल की रहते चले गये ।
नफरत भी सहे ,जुल्म सहे क्या नहीं सहे,
बांह फिर भी प्यार के गहते चले गये ।
शाख जब भी काटे गये थे इस दरख़्त के,
उतने ही जोरदार वो फलते चले गये।
— शिवनन्दन सिंह