ग़ज़ल
खुशियों के मौसम में लगती, मायूसी सी छाई है।
पेशानी पर बल हैं सबके ,कमरतोड़ महँगाई है।।
टँगी अलगनी पर कोने में, सिकुड़ रही है ठंडक से,
सुधि लेने की रोज शिकायत,करती फटी रजाई है।
हाथों में डिग्री की फाइल,लेकर दिखा रहे सबको,
काम तलाशी करने में ही ,भटक रही तरुणाई है।
बहा ले गई बाढ़ भले ही,खड़ी फसल सब खेतों की,
सोच रहा है कृषक खेत में , करनी पुनः बुवाई है।
सही ग़लत का फर्क बताना,उनको लगता लफ्फाजी,
जिनको यश का साधन केवल,दुनिया में रुसवाई है।
बाँट रहा वह खाना, पानी, कंबल, तंबू लोगों को,
बस्ती में वोटों की खातिर ,जिसने आग लगाई है।
पूछे कौन हाल बेटे का ,बाहर से घर आने पर,
नहीं रही माँ घर पर अब तो,करती राज लुगाई है।
डाॅ बिपिन पाण्डेय