मां
मां मेरी अच्छी थी,
बनाती कच्ची – पक्की थी,
मन की बिल्कुल सच्ची थी,
नाना जी की बच्ची थी!
मां जब मुझे सुलाती थी,
कहानी तुरत बनाती थी,
मां लोरी भी सुनाती थी,
मेरी दुल्हनियां लाती थी!
मैं नन्हें पउंवआ दौड़ूं जब,
मां कांटे बीना करती थी,
चना की रोटी में नून पानी,
चुपड़ कर मुझे खिलाती थी!
मेरे लिए सैंडिल – चप्पल,
बापू से कह मंगवाती थी,
मां खुद नंगे पांव रहती थी,
बिना खाए ही सो जाती थी!
गरीबी में भी उसके हाथ का,
रूखा – सूखा भी अमृत होता था,
मैं मां के फटे आंचल में छुपकर,
स्वर्गिक सुख पाता था!
— सतीश “बब्बा”