दोहे
गदहे जी भी हो गए ,थोड़े चतुर सयान,
उल्लू जी का कर रहे ,ले पैसे सम्मान।
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कछुए जी की जीत पर ,खरहा था मायूस ,
पर करोड़ पा के चला ,वो भी पीने जूस।
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टेढ़े उल्लू से कभी ,नहीं बन सके काम ,
उल्लू सीधा जो करे ,वो पाता ईनाम।
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घास कभी खाता नहीं ,अपना शेर अधेड़ ,
उसे चाहिए बकरियां ,उसे चाहिए भेड़ ।
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कुत्ता है गर जिंदगी ,छोड़ न घर ना घाट ,
कुछ पे तो गुर्रा ज़रा ,कुछ के तलवे चाट।
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— महेंद्र कुमार वर्मा