व्यंग्य – ऋतुराज का राज !
पधारो वसंत! तुम हर साल की तरह इस बार भी बिन बुलाए आ गए? बड़े बेशरम हो भाई!! तुम ऋतुराज हो! कुछ तो अपने मान-सम्मान और स्वाभिमान का ख्याल रखा करो? तुमसे अच्छी तो तुम्हारी ‘रानी-बरखा’ है। खूब मनुहार करो, तब कृपा करती हैं! और तुम हो! बिन बुलाए ही हमेशा आ जाते हो! देखते भी नहीं तुम्हारे लायक वातावरण है भी या नहीं? अब आ गए हो तो, आ जाओ। तुम्हारा स्वागत है!
फैक्टरियों की चिमनियों से निकलते हुए धुएँ से आच्छादित नीलगगन की छाया तले! अधजली लाशों और कूड़ा-करकट से अटे तटों पर! मानव-मल की सड़ांध से उच्छवासित गांवों के खलिहानों में! नदियों-तालाबों में हिचकोले भरते हुए फूलों-नारियलों और निर्माल्यों की बदबू में! कानफोडू संगीत के कोलाहल में! ब्राउन शुगर-चरस-शराब-गांजे और कोकीन की मादकता से झूमती-छलकती आँखों के बाज़ार में! बमों की गूंज से दहलती घाटियों और वनों के सन्नाटे में! किसी भी वक्त फट जानेवाले मानव-बमों से आतंकित बगीचों में! सरस्वती विद्या रूपी के मंदिर में गुरुजनों के सीने में उतरती बंदूक की चीख़ों में! अंधियारी-स्याह-शीतल रात में चीथड़ों में लपेटती भूखे बच्चों की माताओं के दर्द में! ‘रंग दे बसंती चोला’ के बदले ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के गगन भेदी नारों के कायराना शोर में! बूचड़खानों की दीवारों के निरीह गायों के बिखरे हुए खून के कीचड़ मे! सरहद से तिरंगे के कफन में लिपटकर आनेवाले शहीदों के ताबूतों की कतार में! राजनीतिक गलियारों की शतरंजी चालों-कुचालों के चक्रव्यूहों में! एक ऐतिहासिक विश्व-सुंदरी की लाज बचाने के लिए हिंसा की आग में सुलगते दीवानों के बीच! ‘खुदा’ और ‘राम’ के बीच छिड़ी वर्षों पुराने कुरुक्षेत्र में! तुम्हारा स्वागत है! अभिनंदन है! ये बात और है कि अभी मौसम ने तुम्हारे आगमन की तैयारी नहीं की है। अभी तो आम ठीक से बौराया भी नहीं। सभी कोयलें संगीत की साधना में लिप्त हैं। कौवे ‘ज़ीरो फिगर’ बनाकर कोयलों की भूमिका निभा रहीं हैं!
हे ऋतुराज! सब तरफ अफरातफरी मची है। तुम मुगालते में हो। सब तरफ तुम्हारी नहीं “कामदेव” की लीला छाई हुई है। तुम्हारी नहीं, उसकी जय-जयकार हो रही है। तुम साल में कुछ दिनों के लिए आते हो। चले जाते हो। वह देखो कामदेव तुमसे नज़र चुराकर यहीं जड़ जमा लेता है। उसका साम्राज्य बारह महीनों स्थापित रहता है। उसके ऐय्याशी के तीर, कमान से निकालकर बलात्कार-पर-बलात्कार करते रहते है! कैसा – कैसा तुम्हारा राज है “राजा जी?”
— शरद सुनेरी