कविता

वसुंधरा सजने लगी

वसुंधरा अब,सजने-संवरने लगी है
चमन में ये कलियां,चटकने लगी है
बागों से यह गलियां महकने लगी है
भीनी-भीनी बयार भी बहने लगी है।

कोयल की तान अब गुंजने लगी है
बौरों की मधुर-महक, आने लगी है
मस्त-महुए की गमक, छाने लगी है
सारी सृष्टी मनमोहक, भाने लगी है।

पलास-टेसू में निखार आने लगी है
सरसराती बहार अब, आने लगी है
स्वागत-वंदन पंछियां,करने लगी है
वसंत की ये सवारियां आने लगी है।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578