घुलते हुए दो जिस्म
सीने पर जो चाँद
तुम टांक गई थी,
वो रफ्ता-रफ्ता बढ़ता जाता है,
जैसे
मेंरे तुम्हारे बीच पनप रहा एहसास हो,
जो
बदल जाता है
पूनम की रात के बड़े आकार में,
तब हम दोनों की अठखेलियाँ
कभी छोटे कैनवास पर
तो कभी दिखाई देती हैं क्षितिज के पार जाते हुए,
ये चाँद
कैसे बदलता है अपना रंग
कभी जामुनी, कभी सन्तरी
तो कभी धवल,
कभी लिपटाए हुए कुछ कालिमा,
ये चाँद बना रहता है गवाह
हमारे बीच के खुमार
और ढलती शाम का,
आहिस्ता-आहिस्ता घुलता है
यह चाँद बर्फ के ग्लोब सा,
और…
घुलते हुए दो जिस्म
हो जाते हैं विलीन एक दूजे में।
— संदीप तोमर