पीड़ा
कवि के शब्द निकल अधरों से, अंतस्थल तक पहुँचे हैं।
बोए बीज पूर्वजों ने जो, वृक्ष सुफल तक पहुँचे हैं।
हिमखण्डों-सी पिघली पीड़ा, पावन पयस्वनी बनकर,
बूँद – बूँद आँसू टपके, तब गंगाजल तक पहुँचे हैं।
तन की सुंदरता देखी, पर मन का मूल्य नहीं समझा
पढ़ न सके नयनों की भाषा, बस काजल तक पहुँचे हैं।
पुष्प, सितारे. तितली. भौंरे, रूप. रंग, रस में खोए
कृपापूर्वक शरण मिली है, प्रिय आँचल तक पहुँचे हैं।
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, जनमानस में राज करें
आज कई कृतिकार मान हित, शीशमहल तक पहुँचे हैं।
दुर्घटना को देख. न कोई सहायता करने आया
मोबाइल से चित्र खींचने, सब घायल तक पहुँचे हैं।
आठ वर्ष की बेटी में भी, काम वासना देख रहे
पापी – दुष्कर्मी के कर, रुनझुन पायल तक पहुँचे हैं।
तृषा-व्यथा को पवनदूत से बहुत बार भिजवाया है
धरती के संदेश समय से, कब बादल तक पहुँचे हैं।
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र