फ़र्ज़
“मां, गैस होते हुए भी आप रोज सुबह 6 बजे लकड़ियां बीनने जाती हैं, ताकि रात को हमें हमारी मनपसंद चूल्हे वाली रोटी मिल सके! आप हमारे लिए इतनी मेहनत क्यों करती हैं?”
“बेटा, औलाद की संतुष्टि के लिए मां कुछ भी कर सकती है, पर आज पूछ क्यों रहे हो?”
“चिड़िया के बच्चे भी तो बड़े होने पर घोंसला छोड़कर उड़ जाते हैं न! बड़े होने पर हम भी नौकरी के लिए पड़ोस के सोनू भैय्या की तरह इधर-उधर चले गए तो…?” छुटकू ने कुरेदा.
“हम मोनू भैय्या की तरह भी तो कर सकते हैं, कि मम्मी-पापा को अपने साथ ले जाएं या पिंकू भैय्या की तरह यहीं पर नौकरी करें,” बड़कू ने अपना बड़कापन दिखाया.
मां चुपचाप दोनों की बात सुन रही थी.
“क्या सोच रही हो मां?” मां को चुप देखकर छुटकू ने पूछा.
“बेटा मां कभी इतना नहीं सोचती, यथासंभव वह अपना फ़र्ज़ पूरा करती है, आगे हरि-इच्छा!”
“हम भी अपना फ़र्ज़ पूरा करेंगे मां, क्यों छुटकू?” बड़कू ने छुटकू का हाथ थामते हुए कहा.
“जरूर भैय्या.” फूली-फूली चूल्हे वाली रोटी खाते हुए छुटकू सहमत था.
— लीला तिवानी