कविता
मैं बहुत दूर निकल आई हूँ
मुझे रोकने की कोशिश न कर।
परवाह नहीं किसी की अब
न है मुझे किसी और का डर।
बहुत हिम्मत लगी है मुझे
खुद के वजूद की तलाश में।
बाँध के मेरे पैरों में फिर से बेड़ियाँ
अपाहिज बनाने की हिमाकत न कर।
मैं कुछ अलग हूँ ये तुम्हें भी पता है
मुझसे मेरी पहचान तू जुदा न कर
मेरे मौन की भी अपनी कुछ मर्यादा है,
मुझे अमर्यादित होनें पर विवश न कर।
मेरा सफर बहुत लम्बा है मेरे दोस्त,
मुझे रोकने की तू कोशिश न कर।
— सपना परिहार