तुम चाहों तो आ जाना
नई सुबह का नया द्वार मैं खोल रहा हूँ ;
तुम चाहों तो आ जाना मैं बोल रहा हूँ !
मैंने तो हर बार दर्द को, सुख – सा ही आभार दिया है।
मौसम ने बदली हो करवट,
हर क्षण को ही प्यार किया है ।
घोर निराशा को पूरे मन से छोल रहा हूँ ;
तुम चाहों तो आ जाना मैं बोल रहा हूँ !
छूकर ही पहचान हुई है
प्राणवान होती है वायु ।
प्रश्न अलग है, ज्ञान लिया क्या
ज्ञानवान होती है आयु ।
जीवित मृत्युबोध के पल को, मैं तोल रहा हूँ ;
तुम चाहों तो आ जाना, मैं बोल रहा हूँ ।
अवरोधों से डरने वाले,
डरकर ही हरदम मिटते हैं ।
आशा के प्रतिबिंब आँख में,
रखकर जो चलते, टिकते हैं ।
जीना चाहों जी लेना, मैं प्यार – प्यार में घोल रहा हूँ ;
तुम चाहों तो आ जाना,
मैं बोल रहा हूँ !
— रामस्वरूप मूंदड़ा