हादसों की गरमी से
हादसों की गरमी से – पिघल जाती है ज़िनदगी इन्सानों की
बहुत बरसता है जब पानी – बैठ जाति है मिट्टी ज़मीनों की
पहरे अच्छे नही होते – रूह से जुडे ज़िन्दगी के रिश्तों पर
शान्त रहने ही दिया जाने चाहिये – इन्हें जैसे गहराई झीलों की
परों के खुलते ही – परव़ाज़ भर लेते हैं परिन्दे फज़ा में
बैठकर ज़मीन पर व़ोह – देखते नही ऊंचाई आसमानों की
शहनियां बे शक हों – निशानियां खुशियों की ज़िन्दगी में
मगर धुनें अैसी भी हैं – सुनाती हैं जो कहानियां ग़मों की
गुज़रते हैं जब व़ोह चमन से – पलट कर अपने नक़ाब को
तितलियां भी रोने लगती हैं – देख कर मुरझाई सूरत फूलों की
जफाओं के ज़ख्म तो कभी भी – नही भरते ज़िन्दगी में
अेक के चुप होते ही – कराहटें सुनने लगती हैं दूसरों की
फैंका किया करते थे कभी लोग – नेकी कर के दरया में मदन
लेकिन आज तो नेकी खुद – घबरा रही है देखकर बुराई लोगों की
मोहब्बत से आव़ाज़ दे कर – बुला लो तुम अपने दुश्मनों को
दोस्ती हो जाती है और भी पुख्ता – मिसाल से अच्छे सलीकों की