कहानी

अल्पविराम

ज़िंदगी बड़ी दगाबाज़ है कब फ़लक भर खुशियाॅं दे दे और कब पल भर में लकीरों को बाॅंझ बनाकर आपको कंगाल कर दें कुछ कह नहीं सकते। सात महीने पहले मेरी झोली में भी मेहरबान होते ज़िंदगी ने खुशियों का अंबार लगा दिया था। शादी के चार साल बाद एक दिन दिशा ने मुझे गले लगाकर खुशखबरी दी, “आनंद..! आप पापा बनने वाले हैं।” मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने दिशा को बाहों उठा लिया और उसके चेहरे को बेतहाशा चूमता रहा। हम दोनों की ऑंखों में ख़ुशी के ऑंसू थे। उस दिन मैंने ऑफ़िस से छुट्टी ले ली और दिशा को लंच के लिए बाहर ले गया, मूवी देखी, मौल गए शोपिंग की, गुल्फ़ी खाई और यूॅं हमने हमारी ज़िंदगी में आने वाली खुशियों को एन्जॉय किया। मैंने दिशा के लिए पूरे दिन की नौकरानी रख दी, ताकि दिशा को शारीरिक और मानसिक रूप से आराम मिले। हर रोज़ फ्रुट्स, ड्रायफ्रूट्स, दूध दवाई और वायटामिन्स देकर दिशा का ख़याल मैं खुद रखता था। मैं अपने बच्चे का स्वागत एक जिम्मेदार पिता की तरह शानदार तरीके से करना चाहता था। मेरी हैसियत के मुताबिक मैंने अच्छे से अच्छे अस्पताल में दिशा की डिलीवरी के लिए नाम रजिस्टर करवाया। हम दोनों मिलकर गर्भस्थ शिशु का बेहद ख़याल रखते थे। ऐसे में दिन कहाॅं बीत गए पता ही नहीं चला।

लेकिन एक दिन अचानक अभी सातवां महीना चल रहा था कि एक रात दिशा अपना पेट पकड़कर तेज़ दर्द के साथ उठी। उसने मेरी बाॅंह पकड़ी और कहा, ‘आनंद मुझे लगता है कि कुछ गड़बड़ है..प्रसव पीड़ा जैसा ही दर्द उठ रहा है। मैं भी जानता था कि यूॅं सातवें महीने में दर्द उठना गंभीर है। मैं दिशा को लेकर तुरंत अस्पताल पहुॅंचा। पूरे रास्ते दिशा कहती रहीं, “आनंद मुझे उम्मीद है कि हमारा बच्चा सुरक्षित है, आप भी सकारात्मक सोचिए हमारे बच्चे को कुछ नहीं होगा।” लेकिन जब डॉक्टरों ने दिशा को देखा, तो उन्होंने कहा, “पोजिशन जटिल है हमें तुरंत बच्चे का जन्म करवाना होगा।” अभी सिर्फ 7वां महीना चल रहा था, मैं डर गया था, लेकिन हम क्या कर सकते थे? हमारे पास डाॅक्टर की बात मानने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। मैंने संमति पत्र पर दस्तखत किए और  डॉक्टर दिशा को ऑपरेशन थिएटर में ले गए। मैं बाहर नतमस्तक बैठे ईश्वर से प्रार्थना करता रहा। हर दूसरे क्षण, नर्सें कमरे के अंदर और बाहर आवन-जावन कर रही थीं। कोई मुझे कुछ नहीं बता रहा था। मैं बस पूरे समय प्रार्थना करता रहा…और तो कुछ कर भी नहीं सकता था।

फिर दो घंटों के बाद, डॉक्टर बाहर आए और कहा, “आपकी पत्नी ने बेटी को जन्म दिया है लेकिन बेबी की हालत बहुत गंभीर है, और हम उसे एनआईसीयू में शिफ़्ट कर रहे हैं।” फिर उन्होंने मुझे बताया कि वह कमज़ोर पैदा हुई थी, उसे फेफड़ों और रक्त में संक्रमण है और वह ठीक से सांस भी नहीं ले पा रही। मैं उसे देखने के लिए एनआईसीयू की ओर भागा। मेरी नवजात बच्ची ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थी। मेरी गुड़िया को ट्यूबों और पट्टियों से ढ़की हुई देख मेरा कलेजा मुॅंह को आ गया। एक पिता अपने नवजात शिशु को इस हालत में कैसे देख सकता है। वह बहुत छोटी थी, दुबली और पीली। इतनी देखभाल के बाद भी ये कैसे हुआ मेरी समझ में नहीं आ रहा था। किसे दोषी दूॅं? किस्मत को, खुद को, डाॅक्टर को या भगवान को? मैं तो एक जिम्मेदार पिता बनकर अपनी संतान का दुनिया में स्वागत करके उसे सारे सुख देना चाहता था। कहाॅं गलती हुई समझ आए तो सुधार भी लेता, लेकिन कभी-कभी हम इंसान इतने बेबस और लाचार हो जाते हैं कि परिस्थितियाॅं हमें अपनी मोहताज बना देती है। चाहकर भी हम कुछ नहीं कर सकते। 

मेरा मन कर रहा था अपने अंश को छू लूॅं गोद में उठाऊॅं। मैं बस उसे गले लगाना और उसके साथ खेलना चाहता था। मैं नम ऑंखों से एकटक उसे देखता रहा तभी नर्स ने आकर कहा, “मिस्टर आनंद वह शायद नहीं बचेगी।” लेकिन मैंने बस उसे देखा मेरे भीतर वात्सल्य का एक ज्वार उठा और मुझे पता था…मुझे पता था कि मैं उसे बचाने के लिए कुछ भी करूंगा।

जब मैं दिशा से मिलने गया तो उसने पूछा, “हमारी बच्ची कैसी है?’ मैंने उसका हाथ पकड़ा और कहा, “उसकी नाक आपकी तरह छोटी है और वह बिल्कुल आपकी तरह दिखती है।” वह रोने लगी। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, “चिंता मत करो, मैं हूॅं न सब ठीक हो जाएगा। हमने एक-दूसरे से कुछ नहीं कहा, लेकिन हम दोनों जानते थे कि गुड़िया के लिए हमें मजबूत रहना होगा।

कुछ मिनट बाद डॉक्टर ने आकर कहा, “उसे 3 महीने तक एनआईसीयू में रखना होगा। तभी वह जीवित बचेगी।” लेकिन इसकी कीमत २० लाख होगी! मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई २० लाख? मैं इतना पैसा कहाॅं से लाऊॅंगा? लेकिन मैंने ठान लिया मैं हार नहीं मानूॅंगा अपनी गुड़िया को बचाने की पूरी कोशिश करूॅंगा। मैंने परिवार के प्रत्येक सदस्य का दरवाजा खटखटाया। मित्रों और रिश्तेदारों के सामने गुहार लगाई। कुछ ने मदद की, लेकिन अधिकांश ने मुझे उल्टे पांव भगा दिया। उसके बाद, मैंने बैंक से एक छोटा सा लोन भी लिया। लेकिन मेरे पास अभी भी पर्याप्त राशि जमा नहीं हुई जो मेरी गुड़िया को साॅंसे उधार दे सकें। मेरी बच्ची की ज़िंदगी पर अल्पविराम लगा है। कहाॅं भीख मांगने जाऊॅं समझ में नहीं आ रहा। इस बात को आज २० दिन हो गए हैं। किसी चमत्कार की उम्मीद में मैं खुद को आश्वासन दे रहा हूॅं। मुझे नहीं पता कि क्या करूॅं।

फिलहाल, मैं एनआईसीयू के बाहर खाना खा रहा हूॅं, हलक से निवाला नहीं उतर रहा लेकिन मुझे खाना पड़ रहा है। क्योंकि मुझे जीना है अपनी दिशा के लिए, अपनी गुड़िया के लिए। मैं दिन रात आइसीयू के बाहर बैठा रहता हूॅं, और यहीं सो जाता हूॅं ताकि मेरी बच्ची अकेला महसूस न करें। उसे देखकर मेरा मन मचलने लगता है। मैं बस यही चाहता हूॅं और प्रार्थना करता हूॅं कि एक दिन मैं उसे अपनी बाहों में भर सकूॅं। एक दिन मैं पहली बार उसे ‘पापा’ कहते हुए सुन सकूॅं। एक दिन जब वह अपना पहला कदम उठाए तो मैं उसकी ऊॅंगलियाॅं पकड़ सकूॅं और मुझे विश्वास है और मैं जानता हूॅं कि एक दिन, वह अपनी ऑंखें खोलेगी और घर आएगी और फिर यह सब सच हो जाएगा। लेकिन कैसे वो पता नहीं। क्या कोई है ऐसा जो मेरी गुड़िया के दम तोड़ रहे शरीर में साॅंसें भर सकें। क्या ईश्वर है कहीं, क्या मानवता ज़िंदा है अभी? अगर मेरी गुड़िया को कुछ हो गया तो मैं दिशा को क्या मुॅंह दिखाऊॅंगा? बड़ी शेखी मार रहा था, “मैं हूॅं न” सब ठीक हो जाएगा। लेकिन अब क्या कहूॅंगा कि मैं अपने परिवार की रक्षा करने में असमर्थ हूॅं? इतने सारे सवालों का सामना नहीं कर सकता मैं। नम ऑंखों से आसमान की ओर देखते इतना ही कहता हूॅं कि मेरे जैसे मध्यम वर्गीय कर्मचारी की ऐसी कसौटी कभी मत करना ईश्वर। ऐसी परिस्थिति मेरी तरह बहुत सारे लोगों के जीवन में आती होगी..! तो आप सबसे एक प्रश्न है। आप किसको दोष देते हैं?

अरे..! ज़रा रुकिए, मेरे कॅंधे पर किसीने हाथ रखा है..! मैं नहीं जानता वो, “आई एम सॉरी हम आपकी बेटी को नहीं बचा पाए” कहने के लिए डाॅक्टर आए है, या, “लीजिए ये पैसे आपकी बच्ची को कुछ नहीं होगा” कहने वाला कोई मसीहा। कोई भी हो सकता है। आप सबसे निवेदन है मेरी बच्ची के लिए दुआ मांगना। उपर वाला किसी की तो सुनता ही होगा। वो शायद आप हो। मैंने पीछे मूड़कर देखा तो मेरी ऑंखें बाहर निकल आई।‌ अनुमान लगाईये, मेरे साथ क्या हुआ होगा? उम्मीद करता हूॅं आपका सोचना मेरी परिस्थिति के साथ मैच….

— भावना ठाकर ‘भावु’ 

*भावना ठाकर

बेंगलोर