कविता

समाज

सम की भाव पर चलता

और चलता आज पर,

आकंठ न डूबा रहे

किसी दकियानूसी रिवाज़ पर,

साथ चलना ही है,

नहीं चल सकता कोई अकेला,

संग चलना है उनके,

नहीं चलता किसी के साज पर,

अनावश्यक बंदिशें तोड़ती है

साथ गुंथी हुई माला,

समझदारों ने समय समय पर

किये हैं बहुत जतन,

नव जरूरतों को शामिल पर

समाज को है संभाला,

एक व्यक्ति हो सकता नहीं

किसी सभ्य समाज का पर्याय,

ऐसे में तानाशाही होगा

कैसे मिलेगा उचित न्याय,

बंधनों से लादन,

 होगा समाज का डर,

आशातीत नतीजे

होगा फिर सिफर,

जरूरत होता है सम विचारों का हुजूम,

राहों को रोका जाये तो

टूटता है हर जुनून,

व्यक्ति से समाज बनता है

आता है अस्तित्व,

समाज का प्रोत्साहन पा

खिलने लगता है व्यक्तित्व।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554