कहानी

कहानी – प्यार का पहाड़ा 

उस दिन हीरालाल ने आशा को गोद में क्या उठाया, लगा उसने पारसनाथ पहाड़ को ही उठा लिया है और वह दारा सिंह महसूसकरने लगा था…!

 वही आशा आज दुबारा मां बनने जा रही थी। परन्तु उसके अंदर का डर उसे बार बार डरा रहा था। वो डर पारसनाथ पहाड़ से भी ऊंचा हो चला था।

 पहली प्रसुति के दौरान सास की कही कड़वी बातें आज तक वह भुला नहीं पाई थी। जीवन का जैसे कोई बहुत बड़ा हादसा हो गया हो! 

 आशा का लाला परिवार की बहू बनना भी किसी अग्निकुंड में कूदने से कम नहीं था। फिर भी वह कूद पड़ी थी, हीरालाल की हिम्मत देखकर! 

छोटानागपुर का पारसनाथ पहाड़ देश विदेश के सैलानियों के लिए सदैव आकर्षण का केंद्र रहा है और युवा सैलानियों के लिए तो पारसनाथ पहाड़ चढ़ना और नयी नयी घुडसवारीकरना किसी रोमांच से कम नहीं था और पहाड़ पर चढ़ते वक्त किसी लड़की को बाहों में उठाने का सुअवसर मिल जाए तो किसी के दिल की घंटी बज उठेगी उसका भी बजा थ। वह भी बाजबहादुर महसूसकर उठा था! आशा की नजरों में उस घड़ी हीरा लाल भी किसी बाजबहादुर से कम नहीं था। और पारसनाथ पहाड़ उसका साक्षी बना था। 

 पारसनाथ पहाड़ की तलहटी पर ही बसा हुआ था वह छोटा सा गांव ” चंदनपुर ” यहां के अधिकांश पढ़ें लिखे युवाओं की जवानी सऊदी अरब जैसे खाड़ी देशों में शेख-शेखाईनों की सेवा और रूपए बनाने में बीत जाते थे और यहां घर में औरतें आनलाईन बच्चे होने की खुश खबरी अपने मर्दों को सुनाने में जरा भी संकोच नहींकरती थीं। नौकरी के लिए मर्दों को घर की औरतों से दूर जाने और घर की औरतों का दूसरे मर्दों के करीब आने में जरा भी देर नहीं लगती थी। पैसे बनाने और बच्चे पैदाकरने की भी एक उम्र होती है। ऐसा अक्सर उन लोगों के मुख से सुना जाता था। समझदार युवक और युवतियां इसका अर्थ भी समझते थे और अवसर का लाभ भी उठाना जानते थे।

 उसी चंदनपुर के माथे पर हीरालाल ने एक इतिहास लिख डाला। प्रेम का इतिहास! जीवन का कखारा! प्यार का पहाड़ा!

 गांव में एक लाला परिवार भी रहता था। नाम था मदनलाल। कपड़े की दुकान थी उसकी, ईसरी बाजार में, कमाई में कमी न थी। लेकिन लाला था, सो लालच भी कम न थी। उनके दो बेटे थे, बडा हीरालाल और छोटे का नाम मोतीलाल था।

 हीरालाल पारसनाथ कॉलेज में बी. कॉम फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रहा था। मकर संक्रांति मेले के अवसर पर उसने अपने दोस्तों के साथ पारसनाथ पहाड़ चढ़ने का कार्यक्रम बनाया था। 

पारसनाथ पहाड़ चढ़ने के आम तौर पर दो रास्ते है। एक सीढ़ीदार और दूसरा घूमावदार। सीढ़िदार सीधे पहाड़ की चोटी पर पहुंचा देता है और घूमावदार में लोग घूमते हुए चोटी तक पहुंचते हैं। इस रास्ते को ज़्यादातर बूढ़े, अधेड़ और औरतें इस्तेमालकरती हैं। परन्तु दमखम वाले युवक युवतियां सीढ़ियां गिनते हुए सीधे सीढ़ियों पर छलांग लगाते, दौड़ते चोटी पर पहुंचते हैं। 

हीरालाल भी उसी दमखम के साथ अपने दोस्तों के संग सीढियां गिनते, पांव उछालते हुए पहाड़ पर चढ़ रहा था। अभी वे लोग आधी दूरी ही तय किए थे कि अचानक सामने सीढ़ी पर एक सुंदर सी मृगनयनी युवती को टेहूना पकड़े बैठे देखा। सहेलियां उसे घेरे खड़ी थीं। रूकते हुए हीरालाल ने दोस्तों की ओर देखा। मामला सीधे सीधे पांव और सिढीयों से जुड़ा हुआ था। इससे पहले कि कोई कुछ बोले, हीरो की माफिक हीरालाल आगे बढ़ा और लड़की को प्यार से अपनी बाहों में उठाया और दनदनाते हुए सीढियां चढ़ने लगा। पीछे से दोस्तों ने सीटी बजाईं और नारे लगाए ” हिप हिप हुर्रे रे! हिप हिप हुर्रे रे! हीरो हीरालाल हुर्रे रे ..!” 

बाकी लड़कियां बंदरियों की तरह उनके पीछे लपकी थीं।

 हीरालाल की बाहों में होना खुद आशा के लिए एक दिवा स्वप्न की तरह था। कुछ देर तक अपलक वह हीरालाल को देखती रही फिर जब उसे पूरा यकीन हो गया कि वह किसी की बाहों में है, तो उसने आगा पीछा न कुछ देखा, न कुछ सोचा और अपनी बाहें उसने हीरालाल की गर्दन पर डाल दी। जवाब में हीरालाल ने मुस्कुरा दिया था।

” बाहों में उठा लिया, जीवन भर का भार उठा सकोगे..?” पहाड़ की चोटी पर पहुंचते ही आशा ने एक झटकेदार प्रस्ताव रख दिया।

हीरालाल एक पल के लिए हील न सका। उसका मुंह खुल न सका। पेड़ की भांति खड़ा होकर सोचता रहा। कोई भी निर्णय लेना उसके लिए आसान नहीं था। बाप की लालची स्वभाव को वह बचपन से देखता आ रहा था। उसकी आंखों के सामने वो डायरी घुम गई, जिस पर उनका बाप उन दोनों भाईयों की पढ़ाई के पीछे खर्च की पाई पाई लिखकर रख रहा था। 

” तुम्हारे प्रस्ताव में, प्यार है, समर्पण है! अगर इसे ठुकरा दूं तो एक पढ़ें लिखे युवक की यह सबसे बड़ी हार होगी और मान लूं तो घर में भारत-पाक युद्ध चलता रहेगा। धन के लोभी प्यार मोहब्बत नहीं समझते हैं। लेकिन तुम्हारे प्यार को ठुकराकर जी भी नहीं सकूंगा.. आशा! अब तो साथ जिएंगे और साथ ही मरेंगे..!” हीरालाल ने आशा को फिर से आगोश में भर लिया था। और आशा को तो जैसे खुला आसमान मिल गया था, – उड़ने के लिए।

पहाड़ पर दिन कैसे बीत गया, प्यार में डूबे न हीरालाल को पता चला न आशा को। पहाड़ से उतरते वक्त भी दोनों एक दूसरे की बाहें थामे हुए थे..

” कल मिलते है, कॉलेज में..!” हीरालाल ने कहा।

आशा भी पारसनाथ कॉलेज में ही बी ए पार्ट टू की छात्रा थी।

” इंतजार करूंगी..!”आशा ने धीरे से कहा।

” हमें भूल न जाना जीजा जी..!” लड़कियों ने सरगम गाए। 

पहाड़ का प्यार और सच्चा यार सबको नसीब नहीं होता। ऐसा उनके दोस्तों का कहना था।

 घर पहुंचने पर रात को छोटी बहन ने आकर हीरालाल को चुपके से बता गयी ” मम्मी पापा ने मानपुर के सेठ धनीलाल की बेटी से आपकी शादी का सौदा पांच लाख में पक्कीकर आये हैं। आपके लिए एक बाइक भी मनवा लिए है। लड़की मिडिल पास है और एक आंख से भैंगी भी!” इसी के साथ उसकी लाड़ली बहन लक्ष्मी गायब हो गई थी। हीरालाल को रात भर नींद नहीं आई। बार बार आंखों में आशा का चेहरा घूम जाता। उसकी कही बातें उसे सोने नहीं देती ” बाहों में उठा लिया, जीवन का भार उठा सकोगे..!”

” मम्मी पापा आपकी शादी का सौदा पांच लाख में पक्कीकर आए हैं..!” पूरी रात हीरालाल जागता रहा।

 सुबह उठा तो बाप से सामना हो गया ” बेटे को बैल समझ लिया, पांच लाख में सौदाकर दिया, बेटे से एक बार पूछा तक नहीं..!” रात भर का ग़ुस्सा बाप की देह पर उगल दिया और अपने कमरे में जा समाया। बाप मदनलाल भौंचक खड़ा उसे देखता रह गया। जो बेटा आज तक उसके सामने कभी सर नहीं उठाया था आज मुंह में हगकर चला गया।

 हीरालाल कॉलेज नहीं गया और मोबाइल स्विच ऑफकर कमरे में पड़ा रहा। उधर कॉलेज में उसकी राह ताकते ताकते आशा की आंखें पथरा गई। हीरालाल को नहीं आना था, नहीं आया। कहीं से उसकी कोई खबर भी नहीं। मोबाइल भी स्विच ऑफ! टेंशन से सर उसका फटा जा रहा था। वह कैंटीन चली गई। वहीं उसे हीरालाल का एक दोस्त मिला। उसी ने बताया कि हीरालाल की शादी पक्की हो गई है। आशा के आंसू निकल आए। वह फफककर रो पड़ी।

 एक माह बाद हीरालाल का बी.कॉम, का फाइनल एग्जाम शुरू होना था। उसने मां से कहा ” मेरे एग्जाम तक, कोई मुझसे शादी बिहा की बात न करें ..!” मां बेटे का मुंह ताकती रह गई।

वहीं बेटे का बदला बदला स्वर से बाप भी सकते में आ गया था। ” लड़की भैंगी है” कहीं किसी ने उसे यह बता दी तो गजब ही हो जायेगा। उसकी बातों से तो ऐसा ही कुछ लग रहा है। अगर उसने भैंगी लड़की बोल शादी से इंकारकर दिया तो जात बिरादरी में उसका झूठा और दगाबाज बनने में जरा भी देर नहीं लगेगी। फिर बिरादरी में वह सर उठाकर कभी नहीं चल पायेगा..? मदनलाल का लालची मन एक दम से हिल उठा था।

 उधर एक मुलाकात और चंद बातों ने ही आशा को बदलकर रख दिया था। कॉलेज जाना तो उसने बंद नहीं किया। लेकिन पढ़ाई में उसका जरा भी मन नहीं लगता। हमेशा खोई खोई और उदास रहने लगी थी। सहेलियां उसे बहुत समझाती, परन्तु जवाब देने की बजाय उन्हें सिर्फ टुकुर टुकुर देखती रहती थी।

 हीरालाल की परीक्षा पखवारा भर चली। सोलहवें दिन सुबह उसने आशा को फोन लगा दिया। तब वह बॉथरूम से फ्रेश होकर बाहर दातूनकर रही थी ” आशा, मैं तुम्हारा हीरू बोल रहा हूं…!” 

” इतना बड़ा नाम! मैं हीरू बोलूंगी..!” हीरालाल पहाड़ से ही हीरू बनकर उतरा था।

आशा कुछ बोले उसके पहले हीरालाल पुनः बोल उठा ” सुनो, आज हम कॉलेज में मिल रहे हैं। “और फोन डिस्कनेक्ट हो गया था। आशा जो अभी तक उदास और मुरझाई-मुरझाई सी रहती थी, फोन क्या आया, पौधे को पानी मिल गया और जीवन को संगीत! वह ग़ुलाब सी खिल उठी थी।

 उस दिन पहले हीरालाल कॉलेज पहुंचा था। फिर आशा आई थी ” मैं पांच लाख को लात मारकर आया हूं, तुम्हारे सवाल का जवाब देने ” मैं तुम्हारे जीवन भर का भार उठाने को तैयार हूं, क्या तुम मेरा साथ देने को तैयार हो ..?” आते ही हीरालाल ने पूछा था।

 ” जहां चाहो, ले चलो हीरू, मैं तैयार हूं ..!” आशा का जवाब था।

अगले ही पल धड़कते दिल से दोनों एक बस में जा बैठे थे। बस गिरिडीह की ओर दौड़ रही थी।

 घर में धनीलाल की बेटी के साथ शादी के लिए हीरालाल पर दबाव बढ़ने लगा था। पर उसका एक ही जवाब होता -” एग्जाम का रिजल्ट आने दो, फिर सोचेंगे ..!”

मां बाप फटे बांस की तरह बेटे का मुंह देखने लगते।

कहीं से उन्हें भनक लग चुकी थी कि बेटा उनकी पसंद को नापसन्दकरता है। तब से दोनों का माथा ठनका हुआ था।

 उस दिन बी.कॉम प्रथम श्रेणी के रिजल्ट के साथ हीरालाल ने जब घर में क़दम रखा तब रिजल्ट उसकी बैग में था और आशा उसके साथ खड़ी थी। दोनों का साथ आने से घर का तापमान अचानक से बढ़ गया था और घर वाले उन्हें घूरने लगे थे। मां के मुंह का स्वाद बिगड़ गया था तो बाप का मूड़ हाथी की सूंड की तरह होने लगा था। भाई अलग ही तरीके से उन दोनों को घूर रहा था। कोर्ट मैरिजकर हीरालाल ने जैसे घर के हर किसी को हानी पहुंचाने का काम किया था। किसी के अरमानों को धक्का लगा था तो किसी के ख़ज़ाने को। वह घर वालों के लिए गुनाहगार बनकर आया था। सो उन्हें घूरना, गुर्राना और उन पर गुस्साकरना सबका हक बनता था। हां, बहन लक्ष्मी ही थी एक जो शांत और चुपचाप एक कोने में खड़ी थी।

 हीरालाल अपनी सफाई में कुछ बोलता। उसके पहले मां की कर्कश आवाज सुनाई पड़ी -” रूको, तुम्हारे साथ यह लड़की कौन है ? “

” मां, यह आशा है, गेंदोडीह के धनपतलाल की बेटी है। हम दोनों ने कोर्ट मैरिजकर ली है! ” 

” इस तरह की शादी को हम शादी नहीं मानते..!”

” मै मानने की बात कहां कह रहा हूं – बता रहा हूं कि हमने शादीकर ली है “

” यह इस घर में इस तरह नहीं रह सकती है..!”

” न बैंड ने बाजा, न ढोल न नगाड़ा , यह कोई शादी हुई ..!” भाई ने मुंह खोला।

” हम इस शादी को शादी नहीं मानते..!” बाप पीछे कैसे रहता।

” निकालो इसे इस घर से, जाने किस कंगाल की बेटी को उठा लाया है..!” मां की चेतावनी।

” इनका बाप झारखंड ग्रामीण बैंक गिरिडीह शाखा के बैंक मैनेजर है..!”

” पांच लाख देगा क्या ? तभी यह इस घर में रह सकती है, अन्यथा नहीं..! मां ने सुरसा वाली मुंह फाड़ा।

” तिलक दहेज के नाम से एक पैसा नहीं मिलेगा..!”

” फिर तो निकालो इसे इस घर से, इसे उसके बाप घर छोड़ आओ..!” मां का फरमान।

” अब तो आशा इसी घर में रहेगी, मैंने इसे शादीकर लाया है, भगाकर नहीं ..!” हीरालाल तनिक भी नहीं हिला।

” मेरी सारी पूंजी बेकार चली गई। ” बाप ने कपार पर हाथ रख लिया।

” खेल खत्म..!” भाई कुढ़ उठा।

” उस भैंगी से तो पांच लाख गुना अच्छी है यह ..!” लक्ष्मी ने पहली बार मुंह खोला।

” तुम चुप रहो, अच्छा, समझा , तुम्हीं ने हीरा के कान भरे थे। ” 

” मैं तो चुप ही रहूंगी, लेकिन दादा ने कमाल हीकर दिया! वाह दादा! आई लव यू! “

” तुम भागती है कि नहीं..!” मां गायत्री देवी गुस्से से लक्ष्मी की तरफ बढ़ी -” देखती हूं यह कैसे इस घर में रहती है..?” उसने कहा और पैर पटकते हुए अपने कमरे में जा घुसी। पीछे से पति मदनलाल भी उसी में समा गया। यह देख भाई मोतीलाल सीटी बजाता बाहर गली में निकल गया।

रात को सोने के पूर्व लाला घर में एक बार फिर जोरदार हंगामा हुआ। बेटे की शादी में मिलने वाला पांच लाख का रकम पर मिट्टी पड़ गया। बिरादरी में नाक कटी सो अलग। लाला दम्पत्ति ने इसे एक सदमे के रूप में लिया। लायक बेटे को नालायक का खिताब मिला।

विरोध में दो दिनों तक घर का चूल्हा ठंडा पड़ा रहा। किसी ने सतू खाकर गुजारा किया तो कोई पानी पी पीकर भूख मिटाई। 

फिर भी हीरालाल टस से मस नहीं हुआ। वह अपने फैसले पर अविचल अडिग रहा। 

तनाव में जब नरमी आई तो हीरालाल काम की तलाश में घर से निकल पड़ा। उसका लक्ष्य बैंकिंग सेवा थी। घर में आशा अकेली किसी अज्ञात अनहोनी को लेकर हिरनी की तरह डरी और सहमी सहमी सी रहने लगी , जब तक हीरालाल या लक्ष्मी दोनों में कोई घर नहीं लौट आते। वह खुद को कमरे में बंदकर लेती और बीच बीच में दरवाजे के नीचे का भाग को नाक सटाकर सूंघ लियाकरती थी। रसोई में घुसने से उसे पहले ही मनाकर दिया गया था ” तुम हमारे रसोईघर में मेरे जीते जी कदम नहीं रख सकती है। ” सास ने फ़रमान जारीकर दी। लक्ष्मी ही उसके लिए खाना लेकर आती। तब आशा बड़े प्यार से थाली से उठाकर पहला कोर लक्ष्मी के मुंह में डाल देती फिर खुद खाती। लक्ष्मी भी कुछ ऐसा हीकरती फिर ननद भौजाई दोनों साथ साथ खाते। इससे भी गायत्री देवी को घोर आपत्ति थी लेकिन बेटी के आगे उसकी एक नहीं चल पा रही थी।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। हीरालाल भी विज्ञापनों के पीछे भागता रहा। भागता रहा। यह कोई घुड़ दौड़ नहीं थी। यह जीवन की एक ऐसी मैराथन दौड़ थी। जिसे हर किसी को दौड़ना पड़ता है। जो नहीं दौड़ता है वह पीछे रह जाता है।

यह सुखद संयोग ही था कि आशा का बच्चे की मां बनने से पहले हीरालाल को झारखंड ग्रामीण बैंक बिसुनूगढ से बुलाया आ गया। बैंक रोकड़िया के तौर पर वह चयनित हुआ था। घर में ख़ुशी का माहौल था। आशा से कहीं अधिक बहन लक्ष्मी ख़ुश थी। अभी तक घर में हर तकरार में वह भाई भौजाई के पक्ष में खड़ी थी ” तुम सब कुछ भीकर लो, भैया ने कुछ भी ग़लत नहीं किया है ..!” वह मां से अक्सर भीड़ जाती थी। मां की जुबान की वही स्पीड ब्रेकर भी थी।

बाप कभी कभार ही अब मुंह फाड़ता था।

हीरालाल के कोर्ट मैरिज शादी का बहु भात बाकाया चल रहा था -” नौकरी लगने दो, पार्टी दूंगा ..!” वह दोस्तों से कहाकरता।

” बाद में कहोगे, बच्चे होने दो, तब पार्टी दूंगा..!” दोस्त भी कहने में पीछे नहीं रहते थे। 

 नौकरी की खबर पाते ही दोस्तों ने हीरालाल को पके आम के पेड़ की तरह हिलाने लगा। 

उसी उपलक्ष्य में उसने एक दिन घर में एक पार्टी रखी थी। पार्टी में शामिल सभी लोग खुश थे। सिवाय मां गायत्री देवी को छोड़। बाप लाला था। बनिया था। बहुत सोच विचारकर वह भी पार्टी में शामिल हो गया। आखिर नौकरी वाले बेटे का बाप कहलाने का हक तो उसी का बनता था। बेटे की शादी में मिलने वाली मोटी रकम तो हाथ आया नहीं, अब इसे भी कैसे जाने देता। 

उस पार्टी के ठीक डेढ़ माह बाद सुजाता नर्सिंग होम में आशा ने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दी। घर में सभी के मुंह लरक गए। सिवाय लक्ष्मी को छोड़कर। दूसरे दिन हीरालाल जच्चा बच्चा लिए घर आ गया। आंगन में क़दम रखा तो लक्ष्मी बच्ची पर लपकी ” घर में परी आ गई..!” 

गायत्री देवी ने जुबान कसैलाकरते हुए मुंह खोल दिया -” हमने क्या कुछ नहीं सोच रखे थे। कैसी कैसी मन्नतें मांग रखी थी। सब बेकार! .. भागकर शादी करोगे तो यही होगा। आते ही बेटी टपका दी और हमारी सारी मन्नतों पर पानी फेर दिया …!”

” मां, मैं जानता हूं, आपका प्रोब्लम बेटियां नहीं, पैसा है। अगर यही दहेज के साथ आती तो आपके मुंह से बतासे निकलते, ऐसी बातें नहीं निकलती ..!”

” तुम चुप रहो और कान खोलकर मेरी बात सुन लो, अगली बार फिर बेटी पैदा की तो खड़े खड़े घर से निकाल दूंगी, बेटियां छापने वाली फेक्ट्री यहां नहीं चलेगी ..!”

लेकिन आदमी जैसा सोचता है वैसा होता नहीं। आशा दूबारा मां बनने वाली थी।

“ काश कोई चमत्कार हो जाए और इस बार बेटा हो जाए ताकि वह अपनी सास की नफरत को प्यार में बदल सके। इसी सोच में आशा के डिलीवरी के दिन नजदीक आते जा रहे थे।

वक्त का पहिया जैसे फिर से घूमा था। आशा फिर से मां बनी थी। उसने फिर बेटी ही जनी थी। लेकिन उसे जरा भी मलाल नहीं था। 

” आज के दौर में बेटी की मां होना खुशी की बात है, !” डाक्टरों ने कहा था।

” बेटियां आज़ हर मोर्चे पर झंडे गाड़ रही है! बधाई हो! ” नर्सों ने कही थीं।

हाथ जोड़कर उसने सबों को धन्यवाद बोला और नवजात बच्ची के गाल पर हाथ सहलाते हुए स्वत : बड़बड़ाने लगी -” सुन रही हो बेटी, डॉक्टर और दीदी लोग क्या कह रहे हैं, पर तुम्हारी दादी को तो पोता चाहिए था, अब पोता मैं कहां से लाऊं ..!”

तभी सामने पति को पाकर अचानक से वह रो पड़ी -” मुझे माफ़कर देना हीरू, मैं इस बार भी तुम्हारे घर वालों को बेटा नहीं दे पाई ..!”

” नहीं आशु, इस तरह रोना नहीं, बेटा – बेटी पर लिंग भेदकरना जाहिलों का काम है। फिर बेटा या बेटी होना, हम इंसानों के बस की बात तो है नहीं। हां बेटियों को हम अच्छी परवरिश दें, यह हमारे हाथ में है और वो हम करेंगे। आज बेटियां किसी से कम नहीं है। हर क्षेत्र में सफलता की मिसाल कायमकर रही हैं बेटियां ..!” उसने आशा के गाल पर ढलक आए आंसुओं को पोंछ डाला था और अस्पताल का बिल जमाकरने चला गया।

बेटा बेटी को लेकर उस घर में सास बहू के रिश्तों में पहले से ही जबरदस्त ठनी हुई थी। आज आंगन का रूप अखाड़े में तब्दील होता नजर आ रहा था। तीन साल पहले भी यह आंगन एक बेटी होने का गवाह बन चुका था। तब गायत्री देवी सब पर भारी पड़ी थी। उसका रौद्र रूप आज भी घर वाले भूले नहीं थे। खाश तोर पर आशा तो आज़ तक भूला नहीं पाई थी। उस दिन को और उन शब्दों के मर्म को। गायत्री देवी का रूप देख लगा नहीं था कि कभी वह इस घर की बहू भी थी। आज का समय भी वही था जो तीन साल पहले का था। अब देखना था तीन साल पहले के संवाद आज फिर दुहराए जाएंगे या कोई नयी इबारत लिखी जाएगी। चारों तरफ चुप्पी छाई हुई थी। सब कुछ बदला बदला सा लग रहा था।

इसके पहले शाम को अस्पताल से जच्चा बच्चा लिए हीरालाल घर आ गया था। आंगन में क़दम रखा तब बड़ी बेटी मानसी उसकी गोद में थी और छोटी मां की आंचल में मुलायमदार तौलिए से लिपटी हुई थी।

आशा ने सबसे पहले आंगन की भूतपिंडा के आगे बच्ची की माथा टेकाकर शिश नवाई। फिर एक कोने में खड़े ससुर को गोड़ लगी कि और जब वह घर के दरवाज़े के सामने खड़ी सास की तरफ बढ़ी, तीन साल पहले सास के कहे शब्द कानों में गूंजने लगी ” याद रखना, दूबारा फिर बेटी पैदा की तो खड़े खड़े घर से धक्के मारकर निकाल दूंगी। वंश बढ़ाने के लिए हमें बेटा ही चाहिए। मेरी यह बात भूलना नहीं…!” 

उसके बढ़ते कदम अचानक रूक से गये थे। आगे बढूं या पीछे लौट लूं! आशा किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ हो गई थी। पैरों पर जंजीर बंधा सा महसूसकरने लगी थी। 

गायत्री देवी की हालत भी कुछ अच्छी नहीं थी। चेहरे पर तनाव और दुविधा साफ दिख रहा था। आगे बढ़कर वह बहू पोती की अगुवाई करें या तीन साल पहले कही अपनी बातों का अमल करें। उसकी बुद्धि कुछ काम नहींकर रहा था। ऊपर से बेटी लक्ष्मी की चेतावनी ने उसे सकते में डाल दिया था ” मैं भी एक बेटी हूं , कल मेरी भी किसी के साथ शादी होगी। मेरे भी बच्चे होंगे और जब मैं भी लगातार दो तीन बेटियां पैदाकर दिए तो ससुराल वाले मुझे घर से नहीं निकालेंगे, इसकी गारंटी कौन देगा.. क्या तुम ..? अगर आज़ भाभी के साथ तुमने कोई ज्यादती की या उसे प्रताड़ितकरने की कोशिश भी की तो याद रखना, इस जार का सारा किरासन तेल अपने पर डाल माचिस मार लूंगी। सास, बहुओं को प्रताड़ितकरना.बंद करें .!”

बात आज ही दोपहर की है। सुबह ही हीरालाल ने घर में फोनकर दिया था। अस्पताल से छुट्टी मिल गई है। शाम को मां बेटी को लेकर वह घर आ रहा हूं। फोन लक्ष्मी ने ही उठाया था। सो लक्ष्मी सुबह से ही भैया भाभी के कमरे को साफ सफाईकरने में लगी थी कि अचानक दोपहर को गायत्री देवी उस कमरे में आई और कहने लगी ” कौन सा वीर पैदाकर आ रही है वो महारानी! जिसकी खातिरदारी में इतना पसीना बहाया जा रहा है..?” 

” मां, बहुत हो गया, अब बस भी करो..!”

” तुम्हें क्यों दर्द हो रहा है उस कलमुंही को लेकर..!”

” मां .अ.अ.अ..!” लक्ष्मी चीख पड़ी थी।

शाम ढल चुकी थी। गायत्री देवी दरवाजे के पास ही खड़ी थी। और आशा, उसकी बहू, बिल्कुल उसके सामने खड़ी थी। इन तीन सालों में उसने इस गूंगी पर तेरह सितम ढा चुकी थी। फिर भी आशा ने आज़ तक उफ़ तक नहीं की थी और न किसी बात का आज तक उसने पलटकर जवाब ही दी थी। क्या सोच रही होगी वह मेरे बारे में! गायत्री देवी खुद को बहुत छोटा और बेहद शर्मिन्दा महसूसकरने लगी थी। उधर घर की सारी नजरें उस पर आ टिकी हुई थीं।

पशोपेश में खड़ी गायत्री देवी एक कदम आगे बढ़ी थी। चेहरा तनाव मुक्त नजर आने लगा था। नवरात्रि के दिन छोटी छोटी बच्चियों को खिलाने, उनकी चुहलबाज़ी याद आने लगी थी। बच्चियों के माताओं के खिले खिले चेहरे याद आने लगे थे। जीवन में आज़ तक उसने सिर्फ पैसों को ही महत्व दिया था, रिश्तों को नहीं। सास होती ही हैं, बहुओं पर हुकूमत चलाने के लिए। यह उसने अपनी सास से ही सीखी थी। उसने अपने बीते दिनों को याद किया तो मरहूम सास याद आई। उन दोनों सास बहू के रिश्तों में कहीं से प्यार का झरना बहते नहीं दिखा। सब कुछ धुंधला धुंधला सा लग रहा था। दुनिया तेजी से बदल रहा था। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे लग रहे थे। 15अगस्त, 26 जनवरी के दिन हर साल बेटियों के द्वारा झांकियां निकालना, कितनी अद्भुत और आकर्षितकरने वाला होता है। बेटियां कहां किसी से कम हैं। क्रिकेट में, कुश्ती में बेटियां देश की शान बढ़ा रही थीं। राष्ट्रीय झंडे की मान बढ़ा रही थीं। हर तरफ बेटियों के बढ़ते कदमों की शोर थीं। और एक वो है जो दहेज की लालच में बेटी पैदाकरने की आड़ में बहू को प्रताड़ितकरते चली आ रही है। धिक्कार है उसके जीवन पर! धिक्कार है उसके सास होने पर! आज उसे खुद को सास कहलाने में भी शर्म महसूस होने लगी थी।

” अगर बेटियां नहीं होगी तो यह संसार नहीं होगा। 

बेटियों का बढ़ना ही संसार का बढ़ना है..!” गुरु फकीर चंद की बातें भी कानों में गूंजने लगी थी। उसने नजर उठाकर एक बार बेटी लक्ष्मी की ओर देखा। वह मां को ही देख रही थी। और आश्वस्त भी नजर आ रही थी। 

तभी गायत्री देवी फिर आगे बढ़ी थी। इस बार रूकी नहीं, आंखें गीली हो चुकी थी उसकी, आगे बढ़कर पोती को अपनी गोद में लेकर कह उठी ” बहू मुझे माफ़कर दो, हमने तुम पर बहुत जुल्म किए..!” गायत्री देवी का गला भर आया था। 

” मां जी, आप सास नहीं, मां है मेरी और माताएं बेटियों से माफी नहीं मांगती , उस पर अपनी ममता लुटाती है..!” 

आशा सास के कदमों में झुकती चली गई थी।

” लक्ष्मी, देखो हमारे घर में एक और परी आ गई..!” गायत्री देवी ने बेटी लक्ष्मी की ओर देखा और नन्ही सी बच्ची को बेतहाशा चूमने लगी थी। आंगन में खड़े और सिकुड़ चुकी बाकी की आंखों में जुगनू सी चमक आ गई थीं। 

हीरालाल ने राहत की सांस ली।।

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय