आह निकल जाती
काग़ज़ों कि तह शब्दों से सिमट ना पाती है
घायल अफसानों से दुनिया को मिलाती है।।
चाहूं खामोशी इख्तियार करूं मैं जब-जब
खुद दर्द-ए चित्कार रूह से बाहर आती है।।
सह नहीं पाते दर्द-ए चित्कार जब ये काग़ज़
तब दर्द को मेरे कलम संग सबसे मिलाती है।।
टूट के बिखर जाऊं आंसूओं संग जब कभी
मुझे ही सहला बहला कर बस ये समझाती है।।
जलेगा तू भी कभी दर्द-ए वेदना मे हमसफ़र
यही आह दिल को चीर वीणा तुझे दे जाती है।।
— वीना आडवाणी तन्वी