सामाजिक

पर्फ़ेक्शन के चक्कर में कहीं स्वयं को अन्याय नहीं कर रहे

“अति सर्वत्र वर्जयेत” इस कथन को समझकर अपनी आदत में सुधार करना अति आवश्यक होता है। क्योंकि अति का परिणाम हंमेशा हानिकारक होता है। फिर चाहे वो आदत हो या कुछ और। कहने का तात्पर्य यह है कि हर चीज़ में परफ़ेक्शन की चाह इंसान को आहिस्ता-आहिस्ता नैराश्य की गर्ता में धकेल देती है। जब अपने हिसाब से कोई काम नहीं होता तब दिमाग में गुस्से का बवंडर उठता है और जब तक वो काम पूर्णतया सही नहीं होता दिमाग वहीं पर अटका रहता है। दरअसल पर्फ़ेक्शनिज़्म या पूर्णतावाद जैसी कोई चीज़ दुनिया में होती ही नहीं है। हरेक में कहीं न कहीं कोई न कोई कमी ज़रूर होती है। 

कुछ औरतों को परफ़ेक्शन का कीड़ा काट लेता है। पहली बात तो उनको लगता है कि पूरी दुनिया का जिम्मा उनके कॅंधों पर लदा है। बात-बात पर सबको हर काम ढंग से करने की सलाह देना, परिवार में हर एक सदस्य की जरूरतों के बारे में बार-बार पूछना, किसी की हल्की सी गलती पर टोकना और सबसे अहम बात ऐसी औरतों को लगता है जैसे वो हर काम में खुद परफ़ेक्ट है वैसे ही सामने वाले को भी होना चाहिए। इसी चक्कर में सबकी नाराज़गी का भोग तो बनती ही है उपर से अपनी ज़िंदगी की तरफ़ उतना ध्यान नहीं दे पाती जितना सबका ध्यान रखने की कोशिश करती है। और जब सब अपने मन का नहीं होता तब उनको चिड़चिड़ापन और अवसाद  घेर लेता है। बात-बात पर बिफर पड़ना और गुस्सा करना आख़िरकार सेहत को तितर-बितर कर देता है। 

हर काम में पर्फ़ेक्शन की चाह रखना बुरा नहीं। लेकिन जब पर्फ़ेक्शन आपकी लत बन जाती है तो आपको कई तरह से परेशान करती है और मानसिक रोगों की चपेट में भी ला सकती है।

ऐसी औरतों को सबको खुश रखने का और सबकी नज़र में महान बनने का शौक़ होता है। ऐसा क्या करूं कि सब मेरे काम से खुश रहें। अरे.. समय पर ये नहीं किया तो कहीं सास बुरा न मान जाएं, अरे.. पति की पसंद का खाना नहीं बना तो कहीं नाराज़ न हो जाए, अरे.. बच्चों की सेहत के लिए तीन टाइम हेल्दी खाना नहीं बनाऊॅंगी तो उनकी तबियत खराब हो जाएगी, ऐसी तो कितनी लंबी लिस्ट है जिनको लेकर कुछ महिलाएं स्ट्रेस का भोग बन जाती है। No doubt आप पर ही सबकी जिम्मेदारी है और आपको ही सब करना है। लेकिन ननक्या इन सारी चीज़ों में अपने लिए भी कोई प्रोग्राम बनाया है कभी? कि हाॅं मुझे अपने लिए ये करना है, वो करना है?

पहली बात तो यह समझ लेना जरूरी है कि हर कोई आपके हिसाब से नहीं चलने वाला। सबकी क्षमता एक सी नहीं होती, न हीं आपकी तरह कोई बनने वाला और हर काम आपके बनाए नियमों के आधिन नहीं होने वाले। जीवन परिस्थितियाॅं और समय के हिसाब से चलता है, न कि किसी के चलाने से। हर काम में हर कोई परफ़ेक्ट नहीं होता सबका काम करने का तरीका, मूड़, क्षमता और समय पर डिपेंड करता है। हम किसी के उपर कोई दबाव नहीं लाद सकते, न अपने तौर-तरीके थोप सकते है; इसलिए बेहतर होगा अनावश्यक किसी के उपर परफ़ेक्शन का ज़ोर डालकर अपनी सेहत की ऐसी-तैसी मत करिए। अपना दिमाग ठंडा रखकर दूसरों को भी अपने हिसाब से जीने देने में ही समझदारी है।

माना कि परफ़ेक्शन इंसान को ग़लती करने से रोकता है। लेकिन जब तक आप गलती नहीं करते आप में सुधार नहीं होता। दर असल ज़िंदगी के तजुर्बे बताते हैं कि गलती करने पर ही एहसास होता है कि कमी कहां है। हरेक गलती इंसान में पर्फेक्शनिज़्म लाती है।

जो लोग हर काम में सिर्फ़ पर्फ़ेक्शन की चाह रखते हैं और इससे कम की स्थिति को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं रहते हैं, उनके अंदर असंतोष की भावना पनपने लगती है। इसका दुष्प्रभाव यह होता है कि व्यक्ति हर समय चिड़चिड़ा रहने लगता है क्योंकि उसे अपने अंदर एक अधूरापन महसूस होता है। परफेक्शन की चाह में व्यक्ति अक्सर ऐसे लक्ष्य निर्धारित कर लेता है, जिन्हें सामान्य स्थिति में प्राप्त करना असंभव होता है। इस कारण व्यक्ति के अंदर आत्मसंतोष की भावना धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। खुशी के अभाव और अपेक्षाओं के बोझ के कारण व्यक्ति हर समय खुद को थका हुआ और ऊर्जाहीन महसूस करने लगता है। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि आप पर्फ़ेक्शन की चाह करना ही छोड़ दें और काम में लापरवाही बरतें। लेकिन इस बात का ध्यान जरूर रखें कि अतिशयोक्ति हर चीज़ में बुरी होती है।

पर्फ़ेक्शनिज़्म के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है दिमाग़ी सुकून। परफेक्ट बनने के लिए ख़ुद को ये समझाना बहुत ज़रूरी है कि गलती कभी भी किसी से भी हो सकती है। हर कोई अपनी क्षमता और योग्यता के हिसाब से काम करता है। दूसरों की ग़लतियाॅं माफ़ करना सीखें। अगर आप से भी कोई काम बिगड़ जाता है तो फ़स्ट्रेट होने की बजाय अपनी ग़लतियाॅं सुधार कर फिर से उसी लगन और मेहनत के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करें। वरना कहीं परफ़ेक्ट बनने के चक्कर में आप स्वयं के साथ अन्याय तो नहीं कर रही न?

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर