कविता

मजदूर दिवस की औपचारिकता

आज एक बार फिरहम सब मजदूर दिवस मना रहे हैं,क्या कहूं कैसे कहूंकि हम मजदूर वर्ग का सम्मान कर रहे हैंया एक बार फिर उनका अपमान कर रहे हैंअथवा औपचारिकता वश मजदूर दिवस मना करउन्हें ही आइना दिखा रहे हैं,उनके जले पर नमक छिड़क रहे हैं।जो भी कर रहे हैं, अच्छा ही कर रहे हैं हम कुछ भी कर रहेपर ईमानदारी से विचार नहीं कर रहे हैं,मज़दूरों के महत्व को बिल्कुल नहीं समझ रहे हैंमज़दूरों को बेबस, लाचार, असहाय समझ रहे हैंउन्हें संपूर्ण इंसान तक नहीं समझ रहे हैं।बड़ा अफसोस है कि हम सबमज़दूरों को अलग अलग खांचों में सुविधानुसार डालकर खुश हो रहे हैं,हम क्या कर रहे और क्या समझ रहे हैं?मजदूर के बिना क्या एक कदम हम आपया हमारा राष्ट्र आगे बढ़ सकता हैं?यदि हां तो विकल्प अब तक पार्श्व में क्यों है?और नहीं तो मजदूरों को हम हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं?उन्नति, प्रगति की राह में मजदूरों कोस्तंभ मान उनका मान सम्मान क्यों नहीं कर रहे हैं,मजदूर दिवस मनाने की आवश्यकता कोहम इतना महत्वपूर्ण क्यों मान रहे हैं?मज़दूरों की हर जरूरत यथासमय पूर्ण होऐसा कोई तंत्र क्यों नहीं बना रहे हैं?मजदूर दिवस मनाकर हम सबअपनी पीठ थपथपा कर इतना एहसानआखिर क्यों जता रहे हैं,मज़दूरों के मान सम्मान स्वाभिमान कोअपने से जोड़कर क्यों नहीं देखते हैं,और मजदूर दिवस की महज एक दिनऔपचारिकता निभा कर ढोल क्यों पीट रहे हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

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