उनकी आत्माएँ लुट रही हैँ और हमारी आत्माएँ बिक चुकी हैँ…
अब उनकी सिसकियाँ नीँद नहीँ तोडतीँ,
उनकी चीत्कारेँ हृदय को नहीँ झकझोरती,
रोज़ टीवी के चैनलोँ पर चीखती हैँ,
अखबार के पन्नोँ पर धब्बेदार चित्र के साथ उनकी लाशेँ बिकती हैँ,
हम जिस्म की खरोँचेँ नहीँ देखते
नंगा बदन देखते हैँ नंगी आँखोँ से,
ताकते हैँ उन धब्बोँ के पीछे
हवस के भेडियोँ की दरिँदगी को,
उनकी दर्द भरी चीखेँ अब जैसे रोज का किस्सा हैँ,
कहीँ ना कहीँ किसी ना किसी गाँव, शहर, बस्ती, कस्बे मेँ वो हर रात चीखती हैँ,
उनकी करुण पुकारोँ पर हिम्मत करके खडे नहीँ होते
दुबककर छिप जाते हैँ,
उनकी आत्मा तडप तडपकर रहम की दुआएँ माँगती हैँ,
लेकिन हमारी आत्मा तो कबकी बिक चुकी है,
वो कौन सा हमारी अपनी थीँ, सब पराई ही तो थीँ,
तो हमे क्या,
एक कच्चा चिट्ठा है,
समाज नाम का,
यहाँ उनकी चीखोँ को प्रतिकार मिलता है,
सिसकियोँ पर कान बंद कर लिए जाते हैँ,
वेदना की धुरी पर लुटती अस्मिता की सुध कोई नहीँ लेता,
एक समाज नामक ठकोसले के सारे नियम,
पीडिता के शत्रु बन जाते हैँ,
माता सी पूजी जाने वाली,
जूती सी ठुकराई जाती है,
चंद रोज पहले किसी मानसिक रोगी ने उसे अपने रोग की दवाई समझकर भक्षण किया था,
आज वो खुद मर्ज बन गयी,
‘स्त्री’ का शरीर नहीँ आत्मा लुटती है ,
जबतक हम अपनी सोयी हुयी आत्मा को जगाएँगे नहीँ, ये लुटती रहेगी।
ऐँसे ही चीखेगी,
तडपेगी और मर जाएगी!
___सौरभ कुमार दुबे
कविता अच्छी लगी.
कविता सही है. जिनकी आत्मा बिक चुकी है उनसे कोई सहानुभूति की आशा करना बेकार है.
सौरव जी कविता में दर्द और गुस्सा है . किसी एक को भी समझ आ जाए तो आप की कविता बेअर्थ नहीं गई .
सही कहते हैं आप.
बधाई, सौरभ जी. आपकी कविता पसंद आई.
आक्रोश के भरी हुई सामयिक और अच्छी कविता.