चितचोर !
तू है तो चितचोर
ब्रह्माण्ड के निपुण चितेरे
दुनियां को रंगा सात रंग से
जानता नहीं कोई
कितने रंग हैं तेरे |
धरती पर कहीं अगाध जल,
कहीं मरुभूमि, जलहीन सिक्तारे
आधार हीन आसमां में तांगा
असंख्य सूर्य चन्द्र तारे |
तू रूप है या अरूप है
सिद्ध योगी न जान पाये,
विज्ञानं भी विस्मित है
तेरा हदीस कोई न पाये |
कपोल कल्पित किस्सों से
भरा पडा है सब ग्रन्थ,
पांडा बताते नई नई पूजाविधि
जिसका नहीं कोई अन्त |
अलग अलग है सबका मत
अलग अलग है सबका राह,
वास्तव में तू क्या है, कहाँ है
कौन बतलायगा हमें राह ?
सही क्या है, गलत क्या है
सोच सोच कर हम हारे,
नामों का कोई अन्त नहीं है
किस नाम से हम तुझे पुकारे ?
गुरुओं की नहीं कमी यहाँ
सब बतलाते हैं तेरे घर की राह,
खुद नहीं कभी चला उस राह पर
खुद के लिए है वह अछूत राह |
तू ही बता क्या करे हम
कैसे निकले इस भूल-भुलैया से,
भटक रहे हैं इस राह पर
न जाने कितने युगों युगों से |
कालीपद ‘प्रसाद’
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