मुन्ने का सवाल
“माँ… ओ री माँ… भिखारी किसे कहते हैं?”
रज़िया पटरी के किनारे पर बैठकर इधर-उधर चलती गाड़ियों की ओर देख रही थी। दूर से आती आवाज़ सुनकर वह खड़ी हो गयी, फिर अपने तीन साल के बच्चे को गोद में बिठाकर दुलारते हुए उसका सिर सहलाने लगी।
“मेरी आँख की पुतली, भिखारी से तुझे क्या मतलब?”
मुन्ना गिड़गिड़ाने लगा-
“बताओ न माँ, भिखारी है कौन?”
रज़िया ने अपने मुन्ने को अंक में लिटा लिया और पुचकारते हुए बोली-
“भिखारी… जो भीख माँगता है।”
मुन्ना एकदम गहरी दुविधा में डूब गया। मन में बने काल्पनिक जगत से निरंतर उठनेवाले विचारों की गति को खंडित करते हुए एक बुद्धिमान प्रौढ़ा की तरह मुँह बनाकर पूछा-
“भीख होती क्या माँ?”
रज़िया बोली-
“जिसके पास खाने, पीने और रहने के लिए कुछ नहीं है, तो वह कुछ-न-कुछ पाने के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलता है। ऐसी पायी चीज़ें भीख होती हैं।”
“तो उस लस्सीवाले की बात ठीक है।”
रज़िया ने फिर मुन्ने को अपने गोद में बिठाकर पूछा-
“लस्सीवाले ने क्या बताया?”
“उसने बताया, हम भिखारी हैं।”
मुन्ने की बात सुनते ही रज़िया एकदम स्तब्ध हो गयी, मानो किसी ने पीछे से आकर अपनी पीठ पर छुरी चलायी हो। उसे लगा कि कोई अपने अंदर हाथ डालकर अपना हृदय खींच रहा है। वेदनाओं की धाराएँ उसकी आँखों के नस मरोड़ने लगीं।
“बेटे, हम खुद भिखारी नहीं बने, हमें भिखारी बना दिये गये हैं।
रज़िया की आँखों से आँसू निकलकर उसके कपोलों से होकर मुन्ने की देह पर टपकने लगे। रजिया में अपने मुन्ने की ओर देखने की शक्ति नहीं रही, इसलिए वह गालों को पौंछते हुए चलती गाड़ियों की ओर निहारती रही, फिर धीरे-धीरे आसमान से अपनी नज़र मिलाते हुए अपने अल्हड़ मुन्ने से कहने लगी- “बेटे, कितने रंगीन थे वे दिन? हमारा भी एक परिवार था। हमारा एक छोटा-सा घर, जिसमें मैं और तेरे पापा थे। मुझे आज भी वह शाम याद है। खेत से तेरे पापा के आने तक मैं तरसती थी। तेरे बारे में सुनकर पापा फूल गये और मुझे उठाकर घर भर दौड़ते रहे।”
रज़िया ने अपने एक हाथ पटरी पर रख दिया और अपना भरा नितंब घुमाकर उसपर कसे पुराने छितड़े से पलकों को पौंछ दिया। उसकी रंगीन भावनाएँ साहिल पर धूप में बिखेरी मछलियों की तरह सिलसिले सूखने लगीं। बोलने लगी- “एक दिन साहूकार ने आकर खूब गालियाँ दीं। कहा- इस हफ़्ते के अंदर पैसे न मिले, तो इनके बदले घर खाली करना होगा। हम करें क्या? इधर फ़सल दौलत की नव वधू ले आती है, तो उधर ऋण उसकी अर्थी उठाकर ले जाती है और मिला हुआ दहेज ब्याज की प्रतीक्षा में। फिर साहूकारों की तलाश। जहाज खड़ा करना है, तो लंगर फेंकना ही पड़ेगा, चाहे वह सोने का भी हो।”
बहती हवा के झोंके आगोश में झूलते मुन्ने को परियों के सपने दिखा रहे थे। गालों में टपकते आँसुओं से उसकी चोली खड़े वक्षस्थल से चिपक गयी है, लेकिन कहीं उसकी छिपी आँखें बोल रही हैं।
“तेरे पापा दिन भर फ़सल काटते रहे। पैसे-वैसे के बगैर भला मदद करेगा कौन? अंधकार में वह घर आया। कुछ जल्दबाज़ी दिखलाते हुए खाना खाया और निकल गया। जाते-जाते कहा- “और काटना है। काटी हुई भी खलिहान में पड़ी है, इसलिए आज रात खेत में ही गुज़रना पड़ेगा।” उस रात कोंधी बिजलियों ने सारे खलिहान को श्मशान बना दिया। मूसलाधार वर्षा के साथ अंधकार तो प्रकाश में बदल गया, लेकिन मेरा जीवन हमेशा अंधकार ही रह गया।”
पटरी पर यहाँ-वहाँ चलनेवालों की दृष्टि इसपर अवश्य पड़ती है। कोई हैरान, कोई दुख और कोई सहानुभूति प्रकट करता है, तो कोई परिहास, मगर इनसे अपरिचित रज़िया के अधर गुनगुना रहे हैं।
“परमात्मा भी कमाल खेलते हैं। इस बार उनहोंने गोटी ऐसी रख दी कि मुझ गर्भवती को खेत में उतरना पड़ा। फ़सल काटते-काटते मुझे एहसास होने लगा कि सारा आसमान झूमते हुए मेरे सिर पर गिर रहा है। जब मेरी आँखें खुलीं, तो मैं अस्पताल में, बरामदे के एक कोने में रखे पलंग पर थी। तमन्ना रहित मेरे मनहूस जीवन में तू एक तमन्ना बनकर आया। तुझे सीने से लगाकर जब मैं वापस लौटी, तब उधर बाढ़ सारा खेत शिकारी कर चुकी थी, तो इधर साहूकार।”
रज़िया आपना मुँह ऊपर उठाकर वेगपूर्ण साँस लेने लगी, मानो मरने की कोशिश करते-करते अधमरी-सी रह गयी हो। दिल में तड़पती भावनाओं को अश्रु धाराओं से सहलाती रज़िया अकसमात् चौंक गयी, मानो नदी के निश्चल जल तल पर किसीने पत्थर फेंक दिया हो।
रज़िया ने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं, तो उसने देखा कि वह सिपाही दो आदमियों के साथ खड़ा है। उसके रौद्र चेहरे को देखकर रज़िया ठिठक गयी। वह अपने आगोश में निद्रित मुन्ने को दोनों हाथों से उठाकर पटरी पर खड़े नीम के एक डाल को आधार बनाकर बनी झोंपड़ी की ओर बढ़ने लगी। सिपाही ने उसकी राह में रोड़ा डालकर कहा-
“तुझसे मैंने कल ही कहा था कि अपने सारे समान जुठाकर यहाँ से चली जा। आज शाम तक यहाँ के सब साफ़ होने चाहिए। जल्दी कर।”
रज़िया अपने मुन्ने को धारण करते हुए सिपाही के पैरों पड़कर विनती करने लगी। मुन्ने को पटरी पर रख दिया और सिपाही के एक पैर को गले से लगाकर कहा– “साहिब, मुझे यहाँ से हटाकर राष्ट्रपति जी क्या दिखाना चाहते हैं? आपको वेतन तो मिलेगा, लेकिन मुझे यहाँ से हटाने से न मेरा कुछ बढ़ेगा और न आपका वेतन भी। अमरूद के पेड़ पर सेब लगाने से पेड़ बदल नहीं जाता साहिब।”
सिपाही ने रज़िया को पैर से धकेल दिया और रज़िया पर अपना आवेग छोड़ने लगा- “यहाँ रहने से तुझे मिलता क्या? लेकिन मेरी नौकरी खतरे में पड़ सकती है। अमरूद के पेड़ पर चाहे सेब टाँगे या न टाँगे, मगर राजनीति ऐसी है कि अमरूद होते हुए भी पेड़ बदल सकता है।”
सिपाही अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा, फिर अपने साथ आये आदमियों को हुक्म जमाया। अपनी खुद की बनी जन्नत की उलट-पुलट को देखकर रज़िया को वही व्यथा का अनुभव होने लगा, जो गाँव की बिछुड़न ने दिया था। तीखी चीखें बरसाते हुए रज़िया उन आदमियों को रोकने लगी, तो सिपाही ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया और घसीटते हुए ले चला।
सूरज अस्तंचल में डूब रहा था। हर जगह साफ हो चुकी थी। जगह-जगह सिपाहियों तथा पुलिसवालों के शोर मिश्रित चहल-पहल अवश्य मच रही थी। सिपाही रास्ते के दोनों ओर आमने-सामने सीधे खड़े थे, मानो प्रत्येक मीटर पर एक प्रतिमा लगा दी गयी हो।
उधर से राष्ट्रपति-जुलूस आ रहा था। आगे-आगे अश्वारोही, फिर पुलिस तथा कवायत की गाड़ियाँ। उनके पीछे काले रंग के चार मोटर गाड़ियों के मध्य में आती सफ़ेद रंग की मोटर गाड़ी में राष्ट्रपति महोदय विराजमान थे।
इधर से अचानक रज़िया का बेटा सिपाहियों के बिचो-बीच आगे घुसकर रास्ते पर आ गया और हैरानी से रथों के जुलूस की ओर देखता रहा। हुक्म पर खड़े सिपाही हिल नहीं सकते, परंतु मुन्ने को हर्ज़ कहाँ? गाड़ी में विराजमान राष्ट्रपति महोदय ने मुन्ने का दर्शन पाकर गाड़ी के शीशे को नीचे करते हुए भरी मुस्कुराहट फेंक दी। स्वीकृत मुस्कुराहट से उसका उतसाह बढ़ गया और दो-चार पग आगे बढ़कर पूछा- “किसने हमें भिखारी बना दिये हैं?”
मुन्ने की मासूमी आँखें और चमकीली नज़रें राष्ट्रपति महोदय की आँखें ही निहारती रहीं।
— डी. डी. धनंजय वितानगे.