बहुत सुना था नाम मगर वो जन्नत जाने कहाँ गयी
बहुत सुना था नाम मगर वो जन्नत जाने कहाँ गयी
हाथों में रह गयी लकीरें किस्मत जाने कहाँ गयी
वक्त यही तब चुपके चुपके धीरे धीरे आता था
अब जल्दी में रहता है वो फुर्सत जाने कहाँ गयी
बड़ा आदमी बना हूँ जब से चेहरे पर सन्नाटा है
वो हंसने की वो रोने की आदत जाने कहाँ गयी
धरती को पांवों में बांधे अम्बर को छू लेता था
यही परिंदा है लेकिन वो ताकत जाने कहाँ गयी
तेरे बंद शहर में अपने गाँव की गलियाँ ढूंढ रहा
चने बाजरे की रोटी की लज्जत जाने कहाँ गयी
हो सकता है नाम हमारा दुश्मन के भी लैब पर हो
जिसका मैं दीवाना हूँ वो उल्फत जाने कहाँ गयी
— डी एम मिश्र
वक्त यही तब चुपके चुपके धीरे धीरे आता था
अब जल्दी में रहता है वो फुर्सत जाने कहाँ गयी
बड़ा आदमी बना हूँ जब से चेहरे पर सन्नाटा है
वो हंसने की वो रोने की आदत जाने कहाँ गयी
Simply Superb