संस्मरण

मेरी कहानी 99

man proposes,god disposes . हमारी ख़ुशी ज़्यादा देर तक रह नहीं सकी शायद यह विधि का विधान ही  है कि वो ज़िंदगी ही क्या जिसमें फूलों के साथ कांटे ना हों  ! . रोने चिलाने से किया होता ,कुछ दिन रो कर चुप कर गए ,लोग आते जाते रहे और हम मुसीबतों से घिरे अजीब स्थिति में थे। कुछ दिन बाद छोटे भाई का एक और खत आ गया जिस में लिखा था कि जो होना था वोह तो हो गया था ,इस लिए हम कोई जल्दी ना करें लेकिन मुझे मेरी  माँ  जिस को हम बीबी कहते थे बार बार मेरी आँखों के सामने आ जाती। हमारी आर्थिक स्थिति भी उस वक्त इतनी अच्छी नहीं थी, अभी अभी कार ली थी और इस को बेचना भी इतना आसान नहीं था। कई दिन तक मैं अखबार में ऐड देता रहा लेकिन कोई ग्राहक  नहीं आया। तंग आ कर मैं उसी गैरेज बार्लो मोटर्ज़ में गया और उस को कहा कि मैं गाड़ी बेचना चाहता हूँ। वोह तो था ही बिज़नेस मैंन। कहने लगा ,” आप ने कई दिन से ऐड भी दी थी ?” मैंने हाँ कहा और अपनी मज़बूरी बताई। जितने की गाड़ी मैंने उस से खरीदी थी ,उस ने उस से बहुत  कम पैसे ऑफर किये। उस  हिसाब से यह मेरे लिए काफी घाटा था लेकिन मैंने उस को हाँ कह दिया और उस ने उसी वक्त चैक काट कर मुझे पकड़ा दिया। उदासी में डूबा मैं घर आ गया और कुलवंत को बताया। कुलवंत ने हौसला दिया कि कोई बात नहीं ,गाड़ी फिर कभी ले लेंगे।

             अब बात थी मेरे काम की और घर को संभालने की ,गियानी जी को मैंने बताया कि हम ने इंडिया को जाना है। गियानी जी कहने लगे ,गुरमेल ! तेरे जाने से अब  होगा तो कुछ नहीं और ज़रा ठहर के चले जाना। लेकिन मेरे मन को पता नहीं किया हो गिया था। मैने कहा गियानी जी अब तो हम ने जाना ही था। उस वक्त मेरे काम पे मैनेजर होता था mr. kendal . मैंने एक खत मिस्टर कैंडल को लिखा जिस में मैंने काम छोड़ने की वजह बताई और यह भी लिखा कि जब मैं इंडिया से वापस आऊँ तो वापस अपने काम पर ही आना चाहता था। दो दिन बाद ही मुझे कैंडल का खत आ गिया कि उसे मेरे घर के हालात पर दुःख है और जब मैं इंडिया से वापस आऊँ तो वोह मुझे काम पर फिर से मेरी जौब दे देंगे। एक हफ्ते का नोटिस मैंने दे दिया था और हम जाने की तैयारी में लग गए। बच्चों के पासपोर्ट अभी बनाये नहीं थे ,इस लिए पहले बैनर्जी स्टूडिओ में बच्चों की फोटो खिचवाने के लिए गए। बैनर्जी ने एक अँगरेज़ औरत से शादी की हुई थी और उस की बीवी और उस की दो बेटियां भी कभी कभी स्टूडिओ में काम करती रहती थीं। दूसरे दिन ही फोटो हमें मिल गईं और पासपोर्ट फ़ार्म भरके ,डाक्टर से फोटो सर्टिफाई करके फ़ार्म पासपोर्ट ऑफिस पीटरबरो को भेज दिए। एक हफ्ते में ही पासपोर्ट आ गए। अब मैं ट्रैवल एजेंट के पास गया और सीटें कन्फर्म हो गईं। काम का नोटिस खत्म होने के बाद जब मैं अपने पैसे लेने गया तो पैसे मेरी आशा से कहीं ज़्यादा मिल गए। यह इस लिए थे कि 1967 में हमारी प्राइवेट पैंशन शुरू हुई थी ,इस लिए पिछले छै सालों में जितने पैसे मैंने पैंशन कंट्रीब्यिूशन में दिए उन्होंने सारे पैसे वापस दे दिए। इस से मुझे बहुत मदद हो गई लेकिन आगे जा कर इस का मुझे नुक्सान ही  हुआ क्योंकि पैसे वापस लेने से इस का मेरी पेंशन पर असर पड़ा था।
घर के बारे में मुझे कोई चिंता नहीं थी क्योंकि गियानी जी का सारा परिवार तो था ही। इंडिया को जाने के लिए बहुत पहले हम को लंदन हीथ्रो या गैटविक जाना पड़ता था ,अब काफी सालों से फ्लाइट बर्मिंघम से अमृतसर जानी शुरू हो गई थीं जिस में मैं और कुलवंत पहले  ट्रैवल कर चुक्के थे और बर्मिंघम  हम से तीस किलोमीटर दूर ही था । अगर उस वक्त बच्चों के साथ हीथ्रो या गैटविक जाना पड़ता तो हमें बहुत मुश्किल पेश आती। नियत दिन हम बर्मिंघम एअरपोर्ट पर पहुँच गए और एअर अफगान की फ्लाइट में बैठ कर इंडिया की ओर उड़ने लगे। बच्चों को क्या पता था कि क्या हो रहा था ,बस वोह तो जहाज़ की खिड़किओं से बाहर का नज़ारा ही देख देख कर खुश हो रहे थे। जल्दी ही रात हो गई और बाहर अँधेरा हो गया ,बस कभी कभी नीचे जब जहाज़ किसी शहर के ऊपर होता तो नीचे हज़ारों लाखों बिजली की बत्तीआं जग मग,जग मग  करती दिखाई देती थीं ।  सुबह सुबह जहाज़ कंधार एअरपोर्ट पर लैंड हो गिया। पिछली दफा जब हम आये थे तो काबल एअरपोर्ट पर लैंड हुआ था। पहाड़ों से घिरी यह एअरपोर्ट छोटी सी थी। एक एरोप्लेन पहले ही रनवे पर खड़ा था। दो घंटे बाद इस प्लेन में हम अमृतसर की तरफ उड़ने लगे। जल्दी ही हम अमृतसर लैंड हो गए। इस दफा हमें लेने के लिए कुलवंत के पिता जी और उस के मामा जी का लड़का छिंदा आया हुआ था। उन की ऐम्बैज़डर कार में बैठ कर हम जीटी रोड पर दौड़ रहे थे। रास्ते में हम कहीं खड़े नहीं हुए और कुछ ही घंटों में रानीपुर हम अपने घर के गेट के सामने खड़े थे। छोटे भाई निर्मल ने गेट खोला और मेरे गले लिपटकर ऊंची ऊंची रोने लगा। दोनों भाई काफी देर इस हालत में रहे और फिर मैं माँ के गले लिपट गिया ,बाबा जी भी नज़दीक ही थे। जो वातावरण उस समय था ,उस को शब्दों में लिखा नहीं जा सकता।
               हमारे बच्चे घबराये हुए हैरान हो रहे थे , उनको क्या पता था कि यह सब क्या हो रहा था। अजीब देश ,अजीब लोग और अजीब वातावरण , बच्चे सहमे हुए हमारी तरफ देख रहे थे। कुछ पड़ोसी भी आ गए थे और बातें होने लगी। कैसे हुआ , क्या हुआ ,क्यों हुआ सभी बातें बता रहे थे। छोटे भाई की पत्नी परमजीत रसोई में चाय बनाने लग गई थी , उसको हम ने पहली दफा देखा था क्योंकि छोटे भाई की शादी पर मैं आ नहीं सका था। बड़ी बिटिआ पिंकी उस वक्त पांच साल की ही थी लेकिन वोह शुरू से ही अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा बड़ी थी , उसने रीटा  और संदीप जो उस वक्त एक साल का ही था सभी को संभाल रखा था। पिंकी का सुभाव शुरू से ही किसी प्रकार के झिझक से बहुत दूर है। मैंने उस को काफी कुछ समझा दिया था और वोह मेरे दादा जी के साथ अच्छी तरह घुल मिल गई थी। दादा जी अब बहुत बूढ़े हो चुक्के थे और उनको ऊंचा सुनाई देता था। पिंकी ने जब कोई बात दादा जी को बतानी होती तो दादा जी के कान के नज़दीक जा कर ऊंची से बोल देती। दादा जी बच्चों के साथ बहुत खुश होते। मेरे पिता जी , दादा जी के अकेले बेटे थे। कोई भी जान सकता है कि बेटे के जाने का दुःख किया होता है लेकिन रीटा पिंकी और संदीप ने उन के दुःख को काफी कम  कर दिया था।
                    बहुत लोगों को हमारे आने का पता चल गया था , इस लिए दूसरे दिन हमारे घर में बहुत लोग आ जा रहे थे। बातों ही बातों में मैंने अपने सपने का ज़िकर किया जिसमें मैं कुएं में गिरा था। बहुत लोगों को उस कुएं के बारे में पता ही नहीं था क्योंकि वोह तो बहुत वर्ष पहले मट्टी से भर दिया गिया था और उसके ऊपर अब  खेत थे। मैंने भी जब का वोह कुआं देखा हुआ था ,उस वक्त मेरी उमर  पांच छै वर्ष से ज़्यादा नहीं होगी।  एक आदमी जो मुझ से बड़ा था ,बोला ” ओ हाँ , तू ठीक है ,कूंआं होता था ,जिस के नज़दीक आम का बृक्ष होता था ,उस को तो बहुत वर्ष हुए भर दिया गिया था “. फिर एक बज़ुर्ग किसी आदमी का नाम ले कर बोला कि यह कुँआ उन के खेतों में हुआ करता था। इस बात से सभी हैरान हुए कि जब पिता जी गिरे थे , उसी समय ही मुझे इंगलैंड में सपना आया था। इस बात को मैं बहुत दफा सोचा करता हूँ कि यह सब क्या था।
               उसी दिन बहादर का भाई लड्डा भी आ गिया और हमारी बहुत बातें हुईं। मेरे ताऊ साहब रतन सिंह और उन के बेटे यानी मेरे बड़े भाई गुरचरण सिंह भी आये। गुरचरण सिंह के मुंह से शराब की बू आ रही थी और उस की बातों से पता चल रहा था कि दिल से वोह बहुत खुश था। ताऊ जी तो शाम को नशे में धुत्त थे , ज़ाहिर ही था कि वोह बहुत खुश थे लेकिन हम तो बचपन से ही ऐसी बातें देखते आये थे जैसे इंडिया पाकिस्तान की बातें सुनता आ रहा है । लड्डे ने भी इस बात का मुझे ज़िकर किया था कि “यार तेरा ताऊ कह रहा था कि अच्छा हुआ मर गिया “लेकिन मैंने उस को कहा था कि “हरमिंदर ! हमें ऐसी बातों से कोई फरक नहीं पड़ता ,हम तो बचपन से ही इन बातों के आदी हो चुक्के हैं ” . इस बात को चार दिन हो गए। अक्तूबर का महीना शुरू हो गिया था और उस दिन ठंड बहुत थी। सुबह नौ दस वजे का वकत था ,एक आदमी जिस का नाम संता सिंह था ( यह वोह ही इंसान था जिस ने बहुत वर्ष पहले गाँव में आये दो साधुओं को पीटा था और उन की सितार तोड़ दी थी ) हमारे घर आया और आते ही बोला ,” ओए निर्मल सिंह , तुम्हारा ताऊ एक मील दूर कैल पर (गाँव के नज़दीक छोटी सी नदी ) गिरा हुआ है और जाते वक्त एक चारपाई भी ले जाना और किसी और को भी साथ लेते जाना । संता सिंह ने हमें सही बात नहीं बताई कि ताऊ जी की तो पहले ही मृत्यु हो चुक्की थी। निर्मल विचारा इन बातों से बेखबर एक और शख्स को साथ ले कर ताऊ जी को चारपाई पर लिटा कर ले आया और ताऊ जी के शरीर को गुरचरण सिंह के घर छोड़ आया। गुरचरण सिंह की पूरी कोशिश थी कि मेरे भाई पर इल्जाम लग जाए लेकिन गाँव के लोग हमारे साथ थे और सरपंच तो ख़ास कर हमारे घर की शराफत को जानता था। बहुत से लोगों ने गुरचरण सिंह को भी समझाया कि ताऊ जी की लाश हस्पताल में खराब हो जायेगी , इसलिए संस्कार जल्दी कर  दिया जाए।
              अब गुरचरण सिंह की बेटी गुड्डी जिस का हाथ मशीन में आ कर एक ऊँगली काट हो गई थी ,सुसराल से उस के आने का इंतज़ार करने लगे। दो दिन पहले ही मेरे बड़े भाई अजीत सिंह भी अफ्रीका से आ गए थे। हम तीनों भाईओं ने ताऊ जी को नहलाया और ताऊ जी को इज्जत के साथ अर्थी पर लिटाया और तीनों  भाई ताऊ जी के लड़के गुरचरण सिंह के साथ , मिल कर अर्थी को ले जाने लगे। हमारे दादा जी भी साथ थे और रो रो कर गुरचरण सिंह को बोल रहे थे कि उन के दोनों बेटे इतनी जल्दी उनकी आँखों के सामने से चले गए और वोह अभी तक यह सब देखने के लिए जीवित थे। गुरचरण सिंह भी रोता हुआ बोल रहा था ,” चाचा ! तुमने यह दुःख देखने थे “
             ताऊ जी को उन की आख़री मंज़िल तक हम उन्हें छोड़ आये थे। सब लोग हैरान थे कि इतनी दुश्मनी होने के बावजूद भी हम फिर से एक हो गए थे। चलता . . . . . . . . .

5 thoughts on “मेरी कहानी 99

  • विजय कुमार सिंघल

    एक ओर पुत्र जन्म की ख़ुशी, दूसरी ओर पिताजी का देहांत ! आपके मन की स्थिति को समझ सकता हूँ, भाई साहब !
    सुख दुःख जीवन के अंग हैं, दोनों अपने अपने समय पर आते ही रहते हैं. हम सभी परिस्थितियों में अपने मन का संतुलन बनाये रखें, इसी में मनुष्य की वीरता है.
    आपकी कहानी बहुत रोचक है. लगातार पढने को मन करता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , धन्यवाद .आप ने ठीक कहा ,दुःख और सुख जिंदगी का हिस्सा ही है . वोह वक्त मुसीबतों भरा था ,लेकिन वोह वक्त काफी पीछे छूट गिया है लेकिन एक बात मैं किसी घर के सदस्य को नहीं बताता ,वोह है जिस दिन बेटे का जनम दिन होता है वोही दिन पिता जी के इस संसार को छोड़ जाने का होता है ,और उस दिन उन्हों की याद आ ही जाती है .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। उस समय की परिस्थितियां जानकार मन में दुःख वा संवेदना हुई। पिताजी और ताऊ जी दोनों का कुछ ही अंतराल में चले जाना ह्रदय विदारक है। माताजी और दादा जी को इन घटनाओं से असहनीय दुःख हुआ होगा। आपने उस समय इन दुखों को झेला है, इसकी अनुभूति आप ही ने अनुभव की है। हम कुछ कुछ अनुमान कर सकते हैं। जीवन में ऐसे वा इससे कुछ कम वा ज्यादा दुखद घटनाएँ मनुष्यों के जीवन में होती रहती हैं. मनुष्य न तो इन्हे पूरी तरह से जान पाता है न हि उसकी समझ में कुछ आता है। शायद इसी लिए कहा गया है की यह मनुष्यों के वश में नहीं है। हार्दिक धन्यवाद। आज कंप्यूटर फिर काम नहीं कर रहा था। अभी चला है।

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद .इस को किया कहें ,बस दुःख सुख जिंदगी के दो पहिये ही हैं ,कभी एक पहिया दिक्कोदोले करने लगता है तो कभी दूसरा और कभी दोनों ठीक ठीक चलने लगते हैं . कम्पिउतर तो मेरा भी कभी कभी बहुत दुखी करता है ,मेरे सेव हुए कई पेपर अचानक लौस्ट हो जाते हैं ,और सच कहूँ तो मुझे कम्पिऊतर की इतनी नॉलेज भी नहीं किओंकि ना तो मैंने किसी से सीखा और ना ही मुझे इस में कोई दिलचस्पी थी . यह तो डिसेबल होने के बाद ही वक्त पास करने के लिए लिया था और धीरे धीरे इस में दिलचस्पी बड गई .

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी बाते ज्ञान से भरी हुई व अनुभव पर आधारित होती हैं जो मन में अपनी जगह बना लेती हैं। आपकी बात पढ़कर मुझे एक फ़िल्मी गीत याद आ गया. “जिंदगी कैसी है पहेली भाई कभी ये हंसाएं कभी ये रुलाये।” मुझे भी कम्प्यूटर का नाममात्र का ज्ञान है। हर छोटी बात के लिए बच्चों से पूछना पड़ता है। किसी तरह गाडी चल रही है। धन्यवाद एवं आदर सहित।

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