कविता

हँसना मना है

शादी के बाद की थी उसकी पहली होली
देवर के दोस्तों ने चाही करनी ठिठोली

तैयारी पूरी कर लगाये थे सब घात
सासू जी ने मंशा पे किया तुषारापात

बहु को ढंक-तोप कर अंगने में बैठाया
सबकी उतंग छटपटाहट पहपटहाया

फीके के फीके रह गये चंग भंग रंग
इक इंच भी नहीं दिखा भउजी का अंग

माल पुआ दही बड़े छोले पकौड़े खिलाया
शिव जी पर जल बारी बारी से डलवाया

विभा रानी श्रीवास्तव 

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

2 thoughts on “हँसना मना है

  • विजय कुमार सिंघल

    फिर तो होली हो ली !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा ,फीके के फीके रह गये चंग भंग रंग

    इक इंच भी नहीं दिखा भउजी का अंग, bad luck !

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