दोहे
मन में गहरे बीजिये, सत्कर्मों के भाव।
पार उतारेगी यही, भवसागर से नाव॥
ऊंचा नीचा छोडिये, हम सब हैं इन्सान॥
मालिक सभी का एक है, सब उसकी संतान॥
भेदभाव को कीजिये, अपने मन से दूर।
सबको वो ही पालता, हम सब उसके नूर॥
मन में गर विश्वास हो, पत्थर भी भगवान।
सच्ची गर हो धारणा, प्रीत चढे परवान॥
कितनी भाषा बोलियां, कितने हैं परिवेष।
सब में ईश्वर अंश है, मानव तभी विशेष॥
कलियुग की इस धूप में, चाहों गर जो छांव।
मन वाणी अरु कर्म को, रखिये संयत भाव॥
तन तो सुथरा कर लिया, धवला किया लिबास।
जब तक मन में दंभ है, मत कर सुख की आस॥
भौतिकता के वास में, सुख सपनेहु नाय।
सुख साधू से पूछिये, जो तन भस्म रमाय॥
कितने ही आकर गये, अमर भया ना कोय।
अंतिम सच बस मौत है, निश्चित सबकी होय॥
तेरा मेरा कुछ नही, सब उसके अधिकार।
सब कुछ उसके हाथ है, जीत हो या कि हार॥
बंसल तू बस कर्म कर, बाकी उसका काम।
तेरे बोये बीज का, फल देंगे श्रीराम॥
— सतीश बंसल