मत जाओ परदेश पिया निक इह इ म डाहिया
जात रहे परदेश कहे तब लाग लुगाइया
मत जाओ परदेश पिया निक इह इ म डाहिया
न सोना ना चाँदी लेबाइ न करिबे शृंगार
रूखी सूखी रोटी अमृत प्यारा घर परिवार
मत जाओ परदेश पिया निक इह इ म डाहिया
चैत की खेती अरु खलियानवा , रहिबे पियवा साथ
बाग बगीचा अमराई मे खाबे खूब टिकोरा
महुआ की बूँदी बिन करके हालुआ खूब बनाउब
गरम -गरम हालुआ हम खबा इ पियवा खूब रिझा उब
मत जाओ परदेश पिया निक इह इ म डाहिया
गरमी से खूब चुवे पसीना – बेना रोज डोला उब
भूल से प्रियतम कबहु कह्बहि-ए सी ना मग़वा उब
बढ़ती गरमी भ यि बरसात बेहन खूब लगा उब
धान की हरियाली मे पियवा सुख को रोज रिझा उब
मत जाओ परदेश पिया निक इह इ म डाहिया
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’
माने कि नहीं 🙂
रचना में अभिव्यक्ति उम्दा
बहन जी आपके आत्मीय स्नेहिल पसंद प्रतिक्रिया के लिए आभार संग नमन
बहन जी आपके आत्मीय स्नेहिल पसंद प्रतिक्रिया के लिए आभार संग नमन
अति सुंदर प्रस्तुति.
आदरणीया बहन जी प्रणाम — त्वरित प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार