ग़ज़ल : विश्व में आका हमारे
वे सुना है चाँद पर, बस्ती बसाना चाहते।
विश्व में आका हमारे, यश कमाना चाहते।
लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े थे सीढ़ियाँ
पग तले अब सिर कुचल, आकाश पाना चाहते।
भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं
दीन-दुखियों के निवाले, नोच खाना चाहते।
बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग
दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।
खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम
अब हलक की प्यास भी, शायद सुखाना चाहते।
शहरियत से बाँधकर, बँधुआ किये ग्रामीण जन
गाँव का अस्तित्व ही, जड़ से मिटाना चाहते।
सिर चढ़ी अंग्रेज़ियत, देशी भुला दीं बोलियाँ
बदनियत फिर से, गुलामी को बुलाना चाहते।
देश जाए या रसातल, या हो दुश्मन के अधीन
दे हवा आतंक को, कुर्सी बचाना चाहते।
कोशिशें नापाक उनकी खाक कर दें “कल्पना”
खाक में जो स्वत्व, जन-जन का मिलाना चाहते।
— कल्पना रामानी
बहुत खूब !
बहुत खूब !
हार्दिक आभार…
सुन्दर भाव
…हार्दिक आभार …