कविता

वाह रे लोग, वाह री संस्कृति…

चेहरे पे थे ख़ुशी के भाव
वो मंद-मंद मुस्कुरा रही थी
शायद !
किसी खास से बतिया रही थी ।

कानों में गूंजा
आज मेरा जन्मदिन है
आओगे नहीं, मुझे विश करने ।

उसके चेहरे की रंगत बता रही थी
भाव-भंगिमा यह जता रही थी
कि
उस खास ने शायद असमर्थता थी जतायी !
तभी तो
आंखों में आंसूओं की थी बूँद
जो अभी-अभी उभर आयी !

पूछ ही डाला मैंने उससे
जिनके चरण में जन्नत है बस्ती
आशीर्वाद से बनते हैं नामचीन हस्ती
लिया आशीर्वाद उनसे,
क्यूंकि
आप तो निकली होंगी घर से !

वो बगल झाकने लगी
इधर-उधर ताकने लगी ।
लगा
वाह रे लोग, वाह री संस्कृति !!

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.