ग़ज़ल
धर्म में, ज़ात में बंट गया आदमी
क्या बनना था क्या बन गया आदमी
गुनाह चेहरे से अब तो झलकने लगे
आईना देख कर डर गया आदमी
ज़मीर का अपने हाथों गला घोंट कर
जिंदा रहते हुए मर गया आदमी
चाँद पर पहुँच कर बहुत मगरूर है
मगर बुनियाद से कट गया आदमी
आग भड़की तो घर सबके जल गए
नासमझी में क्या कर गया आदमी
— भरत मल्होत्रा