कविता

औरत और समाज

झुक जाती हैं नजरें शर्म से
जब बहू बेटियों की इज्जत
लूट ली जाती है, अपने ही समाज में,
ये कैसा अभिशाप है
औरतें कराह रही दिन रात है
बिना जुर्म के सजा पा रही
बेटी रूप में जन्म लेने का,
हर दिन पीड़ा सह रही
हर तरफ चीख और चीत्कार है
बेटियों की इज्जत होती नीलाम है
कोई तड़पकर जहर खाती तो,
कोई फाँसी लगाकर जान देती है
आये दिन ऐसी वारदाते बढ़ रही है
बहु- बेटियों की चिता जल रही है
बलात्कारी उड़ा रहे धज्जियाँ
आबरू की, फिर भी आदमी खामोश है
शायद अपने घर की बहु- बेटियों के
इज्जत लूटने का कर रहे इंतजार है।

*बबली सिन्हा

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