गीत/नवगीत

गीत : कहाँ छुपाऊँ तुझको प्रियतम

सृष्टि के हर अंश में तेरा रूप नज़र है आता,
कहाँ छुपाऊँ तुझको प्रियतम समझ नहीं मैं पाता।

मुसकाओगी तो तारों के बीच नज़र आओगी,
रखूँ अगर खग-वृंदों में तो और मधुर गाओगी,
खुशबू तुम्हारे तन जैसी इन फूलों में न होगी,
शरमा कर तुम तो कलियों के बीच निखर जाओगी,
शांत तरंगों में भी तेरा यौवन है बल खाता
कहाँ छुपाऊँ तुझको…..

साज़ों की आवाज़ में भी तुम राग में ढल जाओगी,
चित्रकार के चित्रों के रंगों में रंग जाओगी,
तेरे ही कारण मूरत जीवंत दिखाई देगी,
बनकर मधुर कल्पना कवि की वाणी बन जाओगी,
गहनों में भी स्वर्णकार है तेरा रूप सजाता,
कहाँ छुपाऊँ तुझको..….

नदियों की धाराओं के संग झरना बन जाती हो
धरती के मुखड़े पर शबनम बनकर इतराती हो,
मेघों के घूंघट में भी तुम बिजली बनकर झाँको,
पुरवैया के झोंको को तुम शीतल कर जाती हो,
भोर की कोमल किरणों में तेरा परिताप समाता,
कहाँ छुपाऊँ तुझको…

मेरे मन-मंदिर में देवी बनकर तुम छिप जाओ,
मेरे तन के रोम-रोम को अपना वास बनाओ,
जब तक जीवित हूँ मुझमें तुम बनकर प्राण समाना
मर जाऊँ तो जनम-जनम की साध तुम्ही बन आओ,
ऐसे एकाकार हो हम कि टूटे ना ये नाता
कहाँ छुपाऊँ तुझको प्रियतम समझ नहीं मैं पाता।