संस्मरण

मेरी कहानी 165

पुर्तगाल की सैर करके हम घर आ गए और तोहफे सभी को बाँट दिए गए । जसविंदर काम पर जाने लगी थी और हम अपने काम में विअसत हो गए यानी ऐरन के साथ वक्त बिताना, जो एक किसम का हमें उल्हास सा मिलता था। ऐरन अब चलने लगा था और कमरे में दौड़ता रहता। छोटे से ढोल के साथ उस को बहुत प्रेम था। इस ढोल को बजाते बजाते उस ने एक सोटी तोड़ दी। अब यह सोटी किसी दूकान से मिलनी तो मुश्किल थी, इस लिए मैंने गार्डन से कौनिफर बृक्ष की एक टहनी तोड़ी और चाकू से छील कर सोटी बना दी। ऐरन खुश हो गया। यह सोटी पहले से मज़बूत थी और अब टूटने का कोई खतरा नहीं था। यही ढोल कुछ ही महीने हुए एक रिश्तेदार के पोते को दे दिया गया है। दिन कैसे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। तीन साल का ऐरन हुआ तो उस को एक नर्सरी स्कूल में दाखल करा दिया गया जिस का नाम है गिफर्ड नर्सरी स्कूल। पहले उस को हाफ डे ही जाना था, जो नर्सरी का असूल है। पहले दिन मैं और कुलवंत दोनों ऐरन को ले कर गए। हमारे लिए भी यह स्कूल नया ही था क्योंकि जब हमारे बच्चे छोटे थे तो उन को हम लेस्टर स्ट्रीट और फिर सेंट एंड्रीउ स्कूल में पढ़ाते थे। पहले दिन जब ऐरन को ले कर गए तो पहले तो ऐरन प्ले ग्राउंड में दूसरे बच्चों को देख कर खुश होता रहा लेकिन जब 9 वजे घँटी बजी तो हम ऐरन को ले कर अंदर गए। सब माताएं अपने अपने बच्चों के कोट उतार कर खूँटियों पे टांग रही थीं, एक खूंटी के ऊपर ऐरन का नाम लिखा हुआ था। कुलवंत ने ऐरन का कोट उतार कर उस खूँटी पर टांग दिया। जब हम उस को अंदर ले जाने लगे तो ऐरन रोने लगा। वोह अंदर जा नहीं रहा था। एक टीचर आई और ऐरन को कलाई से पकड़ कर ले गई और हमें बाहर जाने को बोला। हम चले तो गए लेकिन ऐरन के रोने की आवाज़ लगातार आ रही थी। हम दोनों की आँखों में आंसू थे और घर आने तक हम दोनों कुछ बोले नहीं। चार घँटे का वक्त था लेकिन यह चार घंटे हम उदास ही रहे। एक बजे हम फिर स्कूल पहुँच गये और जब घंटी वजी तो दरवाज़ा खुल गया। धीरे धीरे सब बच्चे बाहिर आ रहे थे लेकिन ऐरन अभी नहीं आया था। उत्सुकता से हम देखते रहे और फिर अचानक उस का चेहरा हमें दिखाई दिया। ऐरन के हाथ में कुछ पेपर थे जिन पर पेंट किया हुआ था और उस के हाथ भी रँगे हुए थे। हमें देखते ही वोह भाग आया और हम से लिपट गया। कुलवंत ने उसे कोट पहनाया और बाहर आ गए। बाबा,” देख मैने पेंट किया है “, ओह! लवली, इतनी अछि ? तू ने तो कमाल कर दिया, हम ने कहा तो ऐरन बोले जा रहा था और एक दो नए दोस्तों के नाम भी लिये। हम भी खुश हो गए और गाड़ी में बैठ गए। कुलवंत ऐरन के साथ बातें कर रही थी। शाम को संदीप और जसविंदर भी काम से आये तो ऐरन से बातें करते रहे।
दुसरे दिन मैं अकेला ही ऐरन को ले कर गया लेकिन ऐरन जाना नहीं चाहता था। जब मैं उस का कोट उतारने लगा तो वोह रोये जा रहा था, ” बाबा ! प्लीज़ डोंट लीव मी “, मेरा मन कमज़ोर पढ़ रहा था लेकिन टीचर आई और उस को पकड़ कर अंदर ले गई। घर को जब मैं आ रहा था तो रो रहा था। बेछक मुझे पता था कि धीरे धीरे ऐरन का मन लग जाएगा, फिर भी पोते से मोह ही था जो मुझे कमज़ोर बना रहा था। घर आया तो कुलवंत ने मुझे पुछा तो मैंने ठीक था कह दिया लेकिन दिल मेरा एक बजे का इंतज़ार कर रहा था कि जल्दी से ऐरन के पास पहुँच जाऊं। एक बजे हम दोनों गए। नर्सरी का दरवाज़ा खुलते ही हम अंदर गए तो देखा, ऐरन चला आ रहा था और हमें देखते ही खुश हो गया। कुलवंत उस को कोट पहनाने लगी और मैं टीचर से पूछ्ने लगा कि ऐरन रोता तो नहीं था। टीचर कहने लगी,” कुछ दिन सभी बच्चे ऐसे ही करते हैं और बाद में जब उन के कुछ फ्रैंड बन जाते हैं तो उन के लिए यह आम बात हो जाती है, हमारा तो यह रोज़ का काम है, आप को फ़िक्र करने की कोई जरुरत नहीं है “, टीचर की बातों से हमें काफी राहत मिली। ऐरन को ले कर हम वापस घर आ गए। धीरे धीरे यह मुश्किल दूर हो गई और अब यह मेरी ड्यूटी ही गई। रोज़ सुबह छोड़ आता और एक बजे ले आता और फिर मैं लंच ले के लाएब्रेरी में चला जाता। लाएब्रेरी में इंग्लिश के पेपर तो थे ही, साथ में पंजाबी और हिंदी के पेपर और मैगज़ीन भी होते थे। एक सैक्शन पंजाबी हिंदी और उर्दू की किताबों का होता था। उर्दू मैंने बचपन में दो तीन महीने ही पड़ा था क्योंकि पकिस्तान बन जाने के बाद ही मैं स्कूल में दाखल हुआ था, तब स्कूलों में उर्दू ही पढ़ाया जाता था लेकिन जल्दी ही उर्दू बन्द कर दिया गया था और पंजाबी शुरू हो गई। उर्दू का अल्फ बे पे ही पड़ा था, या एक उर्दू की नज़्म की एक दो लाइनें पड़ीं थी जैसे, ” आ जा पियारी चिड़िया आ जा, चूं चूं करके गीत सुना जा, नने नने पंजे तेरे. . . . “, बस, इस के सिवा कुछ याद नहीं रहा था । लाएब्रेरी में कभी कभी मैं कोई उर्दू का नावल उठा कर पढ़ने की कोशिश करता लेकिन कुछ बन ना पाता । फिर एक दिन अचानक लाएब्रेरी में हातमताई का किस्सा देखा तो मैं उठा कर पढ़ने की कोशिश करने लगा। इस के लफ्ज़ काफी बड़े बड़े थे। जब मैं सातवीं आठवीं कक्षा में पड़ता था तो उस समय मुझे कहानियों की किताबें पढ़ने का बहुत शौक होता था। जब कभी हम फगवाड़े जाते तो बाँसाँ वाले बाजार में एक किताबों वाली दूकान से कुछ किताबें ले आते थे ।
अब मैं सोचता हूँ, शायद इसी दूकान से मुझे किताबें पड़ने का शौक बढ़ा था क्योंकि अभी हम बचपन में ही थे और हमारा दिमाग इतना विकसित नहीं हुआ था। इस दूकान में बहुत कुछ होता था, जैसे जन्तरीआं, ज्योतिष की किताबें,धार्मिक किताबें, जादू वाली छोटी छोटी किताबें, जिन के कुछ नाम अभी तक याद हैं जैसे इंद्रजाल, बंगाल का यादू, भूत वसी कर्ण जंतर, पिपली भूत, भूत वस करने के मन्त्र, ऐसी बहुत सी छोटी छोटी किताबें जिन के पचीस तीस सफे होते थे, हम खरीद लाते और दोस्त इकठे हो कर पढ़ते और मन ही मन में भूतों के चेहरे सोचते रहते। इसी दूकान से मैंने हातमताई और तोता मैना की किताबे लाइ थीं, जिन को मैं चाँद की रौशनी में पढ़ा करता था। हातिम ताई की किताब में एक मुनीर शामी नाम के आशक के लिए हातम ताई सात सवालों के जबाब ढून्ढ कर लाता था, जिन को पढ़ कर हम बहुत सीरियस हो जाते थे क्योंकि इस में सब जादू ही था। इसी तरह तोता मैना की किताब में तोता कहता था कि औरतें बेवफा होती है और वोह इस को सिद्ध करने लिए कोई कहानी सुनाता था और इसी तरह मैना अपनी कहानी सुना कर यह सिद्ध करने की कोशिश करती थी कि मर्द बेवफा होते हैं। इन कहानियों को पढ़ कर इतना मज़ा आता था कि छोड़ने को मन नहीं करता था। पता नहीं कितनी दफा हम ने यह कहानियां पढ़ी होंगी कि हम को ज़ुबानी याद हो गई थीं।
बस यह हातम ताई की किताब जो बचपन में पंजाबी में पढ़ी थी, उस का फ़ायदा अब इस उम्र में हुआ। लाएब्रेरी में जब मैंने हातम ताई की किताब उर्दू में देखि तो इस को उठा कर मैं पढ़ने की कोशिश करने लगा। एक तो यह किताब मैंने पंजाबी में पढ़ी हुई थी और दूसरे इस किताब में उर्दू के लफ्ज़ मोटे मोटे और आसान थे, अंदाज़े से मैं पढता गया और कुछ ही देर में मैंने एक बाब पढ़ लिया। मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि मैंने किताब इशू करवा ली और कुछ ही दिनों में सारी किताब ख़तम कर दी। मेरे किसी दोस्त को उर्दू तो आता नहीं था, फिर भी मैंने धीरे धीरे उर्दू के नावल ले आने शुरू कर दिए। इस में मुसीबत यह थी कि सीधे साधे लफ्ज़ तो मैं पढ़ लेता था लेकिन मुश्किल लफ्ज़ पढ़ नहीं होते थे, फिर भी मतलब समझ आ जाता था। जैसे हिंदी में संस्कृत के लफ्ज़ होते हैं, इसी तरह उर्दू में भी फारसी के लफ्ज़ आ जाते हैं, जिन को पढ़ना और समझना मुश्किल हो जाता है। यह सिलसिला आज तक वैसे का वैसा ही रहा है क्योंकि कोई टीचर मिला नहीं। फिर भी मैं इंटरनेट पे उर्दू के सहाफत दिली को पड़ने की कोशिश करता रहता हूँ, सारा ना भी पढ़ हो तो मोटी मोटी सुर्खियों से ही मन परचा लेता हूँ।
कुछ देर बाद ऐरन फुल टाइम नर्सरी जाने लगा। अब मेरी ड्यूटी थी, सुबह 9 बजे ऐरन को नर्सरी छोड़ आना और घर आ के ब्रेकफास्ट ले कर लाएब्रेरी चले जाना। एक बजे घर आ के लंच लेना और फिर वापस लाएब्रेरी में चले जाना। तीन बजे ऐरन नर्सरी से बाहिर निकलता था और दस मिंट में मैं वहां पहुँच जाता और ऐरन को ले आता। कभी कभी जब दिन अच्छा होता तो सुबह को पैदल चल कर ही नर्सरी ले जाता। मैकबीन्ज़ रोड कुछ लंबी रोड है जिस के एक तरफ मकानों के ऑड नंबर हैं और दुसरी तरफ ईवन नम्बर हैं। सुबह को जब मैं ऐरन को ले कर जाता तो उस से नम्बर पड़ने को कहता। वोह पड़ता जाता, वन, थ्री, फाइव, सैवन और इस तरह सड़क के आख़री मकान तक वोह पड़ता जाता और शाम को हम दुसरी तरफ से आते और वोह वन हंड्रड, नाइंटी एट, नाइंटी सिक्स पड़ता जाता। इस से एक तो ऐरन खुश होता था और दूसरे उस को गिनती जल्दी आ गई थी।
इसी दौरान घरों की कीमतें बढ़ने लगी थीं। एक दिन संदीप मुझ से पूछने लगा,” डैडी हम घर ले लें ?”, पहले तो सुन कर हम दोनों को झटका सा लगा, फिर मेरे दिमाग में बात आई कि अपना घर लेने से एक तो उन को ज़िमेदारी का अहसास होगा और दूसरे एक प्रॉपर्टी और हो जायेगी और तीसरे हर पति पत्नी अपनी आज़ादी चाहते हैं। वोह चाहते हैं कि उन का भी कोई अपना घर हो। कुलवंत भी पहले पहले कुछ अजीब महसूस करती थी लेकिन मैंने उस को समझाया कि एक घर और लेने से हम को भी कुछ आज़ादी मिलेगी। दूसरे इस से पियार और बढ़ेगा। मकान लेने का फैसला तो हो गया था लेकिन मकान मिलना इतना आसान नहीं था क्योंकि वोह समय ऐसा था कि कोई भी मकान देखने जाते तो वहां पहले ही बीस पचीस लोग मकान देखने के लिए खड़े होते थे। दिनबदिन मकानों की कीमतें बढ़ती जा रही थी। जो भी हम ऑफर देते, कोई और उस से ज़्यादा ऑफर कर देता और मकान हाथ से निकल जाता। ऐसे ही एक मकान हम ने देखा लेकिन इस की काफी रिपेयर होने वाली थी। मैंने संदीप को बोला कि यह मकान भी हाथ से निकल ना जाए, रिपेअर बाद में होती रहेगी। जसविंदर भी मान गई और हम ने डिपॉज़िट दे दिया। सर्वेयर की रिपोर्ट और लोन एप्रूव होने में कुछ वक्त लग गया और तकरीबन छै हफ्ते बाद हमें घर की चाबी मिल गई।
अब सवाल था इस को रिपेअर करने का। इस घर में पहले कोई बूढ़ा अँगरेज़ रहता था जो लगता था कि गार्डनिंग का शौक़ीन था क्योंकि गार्डन में एक ग्रीन हाऊस था, जिस में तरह तरह के प्लांट थे लेकिन यह सब सूखे हुए थे। ऑलिव (जैतून )का एक बृक्ष था, जो जैतून से लदा हुआ था। एक तरफ लकड़ी की एक शैड थी, जिस में गार्डनिंग टूल रखे हुए थे और एक मैक्सीकन टाइप बड़ी सी हैट रखी हुई थी, शायद उस बूढ़े की हो। घर के अंदर बहुत कुछ करने को था। तो पहले हम ने एक बढ़ा सकिप्प रखवाया ताकि घर से पुराना सामान निकाल कर इस सकिप्प में डाला जाए जो बाद में भरने पर लॉरी वाले ले जाते हैं। रोज़ रोज़ हम घर से सामान निकाल कर सकिप्प में फैंकते जाते और लॉरी वाले को टेलीफोन कर देते जो आ कर करेन से सकिप्प को लॉरी के ऊपर रख लेता और चले जाता और सकिप्प को डंप पर खाली करके खाली सकिप्प घर के बाहर रख जाता। अब मैंने संदीप को कहा कि अब घर को अछि तरह रिपेअर करके ही प्रवेश करना चाहिए क्योंकि जब घर सैट हो जाता है तो फिर रिपेअर करना मुश्किल हो जाता है। पहले हम ने घर की सारी रिवायरिंग कराई, फिर नई सेंट्रल हीटिंग, जिस में सब नए रेडिएटर और नया बॉयलर फिक्स कराया। दीवारों को नया पलस्तर करके पेंट किया, नए दरवाज़े और नई डबल ग्लेज़िंग करवाई। फिर ए टू ज़ैड नया फर्नीचर लाया गया। अब जा कर घर रहने के काबल हुआ। इस घर में किचन काफी छोटी थी लेकिन फ़िलहाल हम ने इस में ही नए यूनिट फिट करवा लिए। काम बहुत था लेकिन दो तीन महीने में हम ने ख़तम कर लिया।
जिस दिन संदीप और जसविंदर ने नए घर में शिफ्ट होना था, उस दिन जसविंदर के ममी डैडी भी आये हुए थे,पहले तो कुलवंत ने अरदास की और बाद में छोटी सी पार्टी की और देर रात को मैं और कुलवंत अपने घर आ गए लेकिन अब हमें घर सूना सूना सा लगता था लेकिन कुछ ही दिनों बाद सब नॉर्मल हो गया क्योंकि जसविंदर काम पर जाती थी और ऐरन की ज़िमेदारी पहले की तरह हमारी थी। फर्क सिर्फ इतना था कि तीन बजे ऐरन को स्कूल से ले कर संदीप के घर छोड़ आता था क्योंकि जसविंदर जब तक काम से वापस आ जाती थी। इस बात को अब तकरीबन बारह साल हो गए हैं और हम सोचते हैं कि उस वक्त हम ने बहुत अच्छा किया था। अगर हम भावुक हो कर बच्चों को जाने ना देते तो आज जो हम में पियार मुहबत है, वोह शायद ना होता क्योंकि इकठे रहने में बहुत दफा रिश्तों में दरार भी पढ़ सकती है और आज हमारे बच्चे पहले से ज़्यादा हमारा खियाल रखते हैं और पोते तो इतना करते हैं कि जब शाम को अपने घर जाते हैं तो गले लग कर जाते हैं। इस हफ्ते से छोटा पोता भी हायर सैकंडरी में जाने लगा है और कुलवंत की स्कूल जाने की ड्यूटी ख़तम हो गई है। सुबह को दोनों पोते हमारे पास आ जाते है और कुलवंत उन को ब्रेकफास्ट दे देती है। सवा आठ बजे दोनों अपने दोस्तों के साथ इकठे हो कर स्कूल चले जाते हैं। शाम को फिर हमारे पास आ जाते हैं और जब संदीप और जसविंदर काम से आते हैं तो रात का खाना खा कर अपने घर चले जाते हैं। कुलवंत अपने सीरियल देखने लग जाती है और मैं इंटरनेट पे बैठ जाता हूँ। है ना बुढापे का मज़ा ? चलता. . . . . . . . . .