मेरी दो लघुकथायेँ
1-जादू
-अरे पापा आपकी अलमारी से इतने नोट झड़ पड़े। मैजिक–। कहाँ से आ गए। मुझे तो आप एक रुपया भी नहीं देते।
-तू सब लेले।
-सच में पापा।
बच्चा दोनों हाथों से उन्हें बटोरने में लग गया।
-क्यों इनकी रेड़ पीट रहा है। आप तो इसे बड़ी छूट दे रहे हैं। कहीं न सही मंदिर में तो भगवान के आगे इनको चढ़ा सकते हैं।
-देश की करेंसी बदल जाने से इनकी कोई कीमत नहीं रही। इस पुरानी करेंसी से न कुछ खरीदा जा सकता है न बेचा जा सकता है। बेचारा पुजारी ने भी इन्हें देख-देख अपना माथा ठोक लिया और अनुदान पेटी पर लिख दिया है –पुरानी करेंसी न डालें।
-पापा, पुजारी जी ने तो बड़ी गलती की। वे ही तो कहते हैं भगवान सब कर सकता है, बहुत बुद्धिवाला है, बहुत शक्तिवाला है। तब तो फिर वह मिनटों में पुराने नोटों को नया बना कर अपना जादू दिखा देता।
2-हँसती आँखें
पैदा तो वह दूसरे बच्चों की तरह से ही हुआ था । मगर उसकी दुनिया दूसरी थी —अभावों की दुनिया।अभावों के अभिशाप से अभिशप्त। किस्मत भी तो उस अभागे की धोखा दे गई और जवानी में ही कुष्ट रोग ने आ घेरा। सांस लेने को न ताजी हवा और न दो जून रोटी तिस पर भरी जवानी में ही लगा जानलेवा यह घुन। । पेट की पुकार ने उसके हाथ में भीख का कटोरा थमा दिया। माना उस के पास कुछ न था पर जवान दिल तो था जो धड़कता था। ऐसे साथी की तलाश में रहता था जो उसकी बात सुने, उसके उन घावों पर मरहम लगाए जो किसी को दिखाई नहीं देते। किस्मत से वह मिल ही गई पर वह भी उसकी जैसी ही कुष्ठ रोगिणी। हाथ में हाथ लेकर दोनों अस्पताल जाते, मानो ज़िंदगी भर साथ रहने का वायदा कर रहे हों। खून से सनी पट्टियाँ बदलवाते और एक दूसरे की तरफ कनखियों से देख गुनगुनाते । दुनिया वाले उन पर हँसते और कहते –एक दूजे के लिए। वे न बुरा मानते और न अपनी बीमारी का मातम मनाते ।
उनकी आँखें तो बस हँसती और कहने वालों की बात उनके दिल की गहराइयों में उतर जाती।
— सुधा भार्गव