सर्कस की लड़की
मित्रों यह कविता मैं 2005 के फरवरी माह के आखिरी सप्ताह में लिखा था। उस समय मैं ग्यरहवीं की परिक्षा देकर घर वापस लौट रहा था, चौराहे पर पहुँचा तो देखा कि वहां एक लड़की करतब दिखा रही थी। उसके करतब और लोगों की मानसिकता को उस समय मैं अपने पेपर पर लिख लिया था ; आज किसी बात पर यह कविता याद आ गई।
आप सब अपनी पसंद और नापसंद बताकर मेरा उत्साहवर्धन करने की कृपा करें।
।। सर्कस की लड़की।।
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सर्कस की लड़की,
नित सौरभ की मंजरियों सी गदराती जाती,
सर्कस है दिखाती।
समष्टि में जनता को –
तन ढकने को हि तन दिखलाती।
ना जाने दुहिता किसकी,
सर्कस वाले कि तो नहीं लगती,
नित यौवन कि अमराई में,
कोयल बनके कूका करती।
जीवन इसका शिक्षा विहीन,
पर कला में बाला है प्रवीन,
मुख चन्द्र नहीं श्यामल है,
तन रस पूरित मेंघो के सदृश।
कसे बदन को है तड़पाती,
खुद आप ही आप लरजती है।
यहाँ धवल वस्त्र धारी छुप कर,
इस तन की कामना करते हैं,
मौका मिलते ही मसलते हैं,
कलियों को कुचला करते हैं,
इन प्रजापालकों से बचकर,
यह अल्हड़ यौवन तिरती है।।
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।। प्रदीप कुमार तिवारी ।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7537807761