कविता :: करो संकल्प साधना
करो संकल्प साधना
जैसे पर्वत का संकल्प है अटल ही रहना
जैसे नदियों का संकल्प है कल कल बहना
पुष्प सुगंधी फैलाने का संकल्प लिए है
सुरभित बाग़ बाग़ को शोभित स्वतः किए है
बन फूलों का माधुर्य धरा की बनो प्रेरणा
करो संकल्प साधना
अम्बर के विस्तार ने जैसे सबको घेरा
और दिवाकर का प्रकाश भी सदा सुनहरा
कोकिल के कलरव में मीठी तान छिपी है
जो सुंदर प्रकृति शब्दों की ज्ञान लिपी है
इसी तान के पीछे जागृति की अमिट भावना
करो संकल्प साधना
जैसे लहरें पत्थर से हैं नित टकराती
मुह की खाकर बार बार ही लौट हैं जाती
लेकिन फिर फिर आकर उसको चोट लगाती
पत्थर की छाती को एकदिन तोड़ हैं पाती
है अखंड यज्ञों में आहूत यह उपासना
करो संकल्प साधना
सौरभ कुमार दुबे