रोहिंग्या मुस्लिम पर पूरी दुनिया ख़ामोश क्यों है?
भारत के कई शहरों जैसे कोलकाता, लुधियाना, अलीगढ़ वगैरह में रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। रोते बिलखते बच्चों-महिलाओं के फोटो लगी तख्तियां लेकर कहा जा रहा है पूरी नस्ल को ख़त्म किया जा रहा है। बच्चों तक को भाले-बर्छियां भोंककर टांग दिया जा रहा है। औरतों की आबरू लूटी जा रही है। सवाल पूछा जा रहा है कि पूरी दुनिया ख़ामोश क्यों है?
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्ला खुमेनीई ने म्यांमार की घटनाओं पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मानवाधिकार के दावेदारों की चुप्पी व निष्क्रियता की निंदा करते हुए कहा है कि इस समस्या को हल करने का मार्ग, मुस्लिम देशों की व्यवहारिक कार्यवाही और म्यांमार की निर्दयी सरकार पर राजनैतिक व आर्थिक दबाव डालना है। इन सब मामलों में अक्सर मानवाधिकार संगठन निशाने पर जरूर होते हैं। लगता है वक्त के साथ अपनी दोगुली नीतियों के चलते आज मानवाधिकार संगठन भी अपनी प्रासंगिता खो बैठे हैं।
शरणार्थी मामलों के सभी पुराने कड़वे मीठे मामलों को देखते हुए रोहिंग्या शरणार्थी संकट ताजा हैं और म्यंमार के संदर्भ में दोनां सभ्यतायों और संस्कृतियों के संघर्ष को ध्यानपूर्वक देखें तो इसकी शुरुआत आज से नहीं बल्कि 16 वर्ष पहले उस समय हुईई जब तालिबान ने 2001 में अफगानिस्तान के बामियान में बु( की 2 सबसे बड़ी प्रतिमा को इस्लाम विरोधी करार देते हुए डायनामाइट लगाकर उड़ा दिया था। इसके बाद बौद्ध भिक्षु अशीन विराथू अपना 969 संगठन लेकर आए.। बु( की प्रतिमा टूटना इसके बाद इस्लामिक मुल्कों की चुप्पी विराथू को जन्म दे गयी। जिसकी बेचेनी आज इस्लामिक मुल्कों में साफ देखी जा सकती है। लेकिन इस पूरे मामले में चीन, जापान, रूस से लेकर अमेरिका और यूरोप के शक्तिशाली देश तक मौन है क्यों?
दरअसल दुनिया की पहली प्राथमिकताओं में आज व्यापार सबसे ऊपर है। दूसरा डेनियल पाइप्स कहते हैं कि इस्लाम चौदह सौ वर्ष पुराना डेढ़ अरब से अधिक आस्थावानों का मजहब है जिसमें कि हिंसक जिहादी से शांत सूफी तक सभी आते हैं। मुसलमानों ने 600 से 1200 शताब्दी के मध्य उल्लेखनीय सैन्य, आर्थिक और मजहबी सफलता प्राप्त की। उस काल में मुस्लिम होने का अर्थ था एक विजयी टीम का सदस्य होना यह ऐसा तथ्य था जिसने कि मुसलमानों को इस बात के लिये प्रेरित किया कि वे अपनी आस्था को भौतिक सफलता के साथ जोडे़ं। मध्य काल के उस गौरव की स्मृतियाँ न केवल जीवित हैं बल्कि उनको आधार बनाकर पुनः आज भी उसी स्वर्णिम काल को पाने की चाहत लिए बैठे हैं।
पिछले कुछ सालों के आंकड़े अतीत से उठाकर देखें तो इस्लाम के मानने वालों को जिस देश व सभ्यता ने शरण दी या तो उन सभ्यताओं को मिटाने का कार्य हुआ या आज इस्लाम का उन सभ्यताओं से सीधा टकराव है। एशिया यूरोप समेत अनेकों देश जिनमें फ्रांस से लेकर जर्मनी, अमेरिका आदि तक में यह जख्म देखे जा सकते हैं। ज्यादा पीछे ना जाकर यदि 2010 के बाद के ही आंकड़े उठाकर देखें तो इस वर्ष रूस की एक मेट्रो को निशाना बनाया गया जिसमें 40 लोग मरे और 100 से ज्यादा जख्मी हुए, भारत में पुणे के 17 लोगों समेत विश्व भर में इस्लाम के नाम पर हुए हमलों में उस वर्ष करीब 673 लोग मारे गये। 2011 चीन में एक उइगर आतंकी द्वारा सड़क पर चलते करीब 15 लोगों को गाड़ी से कुचल कर मार डाला और 42 घायल हुए। दिल्ली में बम विस्फोट से 17 लोगों की जान समेत विश्व भर में 717 लोगों को आतंक के कारण जान से हाथ धोना पड़ा। 2012 में 799 तो 2013 में 768 लोगों को मजहबी सनक का शिकार बनाया गया। 2014 में रूस, फ्रांस, अमेरिका, केमरून, इजराइल समेत इस वर्ष 2120 लोग मारे गये। 2015 में देखे तो डेनमार्क, ट्यूनीशिया, केन्या, अमेरिका, भारत, आस्ट्रेलिया, जर्मनी समेत विश्व के करीब 45 देशों में अलग-अलग 110 से ज्यादा हमले हुए जिनमें 3 हजार से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सोना पड़ा। 2016-17 में जिहाद के नाम पर फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, बेल्जियम ब्रिटेन समेत करीब 100 से ज्यादा हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया गया जिनमें 2 हजार से ज्यादा लोग मरे। अमेरिका स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हजारों और मुम्बई हमले को भला कौन भुला सकता है जिनमें लगभग विश्व के सभी देशों के लोगों ने बड़ी संख्या में जान गंवाई थी।
आज इस्लाम में आस्था रखने वाले अनेकों लोग म्यंमार में हो रही हिंसा को बौ( आतंक के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। लेकिन जब इराक में यजीदी लोगों से लेकर बहुसंख्यक इस्लाम के द्वारा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय पर हिंसक हमले होते हैं तो इसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम नहीं दिया जाता क्यों? मुम्बई हमले के वक्त अल जजीरा की वेबसाइट ऐसी टिप्पणियों से भरी पड़ी थी कि मुसलमानों के लिये अल्लाह की शानदार विजय, मुम्बई में यहूदी केन्द्र में यहूदी रबाई और उसकी पत्नी की मृत्यु हृदय को सुख देने वाला समाचार इस्लामी मीडिया में बतलाया गया। हर किसी को याद होगा डेनमार्क के एक समाचार पत्र में प्रकाशित पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों पर हुई प्रतिक्रिया का आवेश जब अनेक देशों के झंड़ों और दूतावासों को आग लगायी गई थी लंदन में प्रदर्शनकारियों की तख्तियों पर यहां तक लिखा था ‘‘इस्लाम का अपमान करने वालों का सिर कलम कर दो।’’
लगभग विश्व का हर एक कोना जिसमें स्कूल से अस्पताल तक, परिवहन से लेकर सड़क पर चलते और धार्मिक यात्राओं तक, सभा से लेकर संसद तक मसलन दुनिया इस्लाम के नाम पर दर्द झेल चुकी है। हर बार जानबूझकर पीड़ा पहुँचाने के लिये नये तरीके सामने आये, राजनीतिक नाटक बनाया गया, कलाकार अपनी भूमिका पूर्ण करते गये और मंच से बिदा होते ही उन्हें शहीद बताया गया। मैं कोई ज्यादा बड़े हिंसक कृकृत्य यहाँ नहीं दे रहा हूँ, न रोहिंग्या लोगों के साथ हूं बल्कि उस सच तक ले जा रहा हूँ जहाँ प्रदर्शनकारी पूछ रहे हैं कि पूरी दुनिया खामोश क्यों है?
-राजीव चौधरी