मूर्ति-स्थापना
इस बार ऑस्ट्रेलिया जाते ही सुखद आश्चर्य ने सरिता को भाव विभोर कर दिया था.
पिछली बार उसके बहू-बेटे ने गौतम बुद्ध की उस मूर्ति को लाने का अनुरोध किया था, जो 53 साल पहले सरिता के ससुर को सेवा-निवृत्ति के अवसर पर यादगार उपहार स्वरूप मिली थी.
”पर वह तो कई बार घर बदलने के कारण एक कोने से थोड़ी-सी टूट गई है, अच्छी लगेगी!”
”ममी जी, और भी अच्छा. यह तो एंटीक पीस हो गया, आप अवश्य ले आइएगा.” बहू के विनम्र आग्रह ने सरिता का संकोच दूर कर दिया था.
”हां दादी जी, आप ने तो देखा ही है, आगे-पीछे ममी ने गौतम बुद्ध की कितनी छोटी-बड़ी मूर्तियां रखी हुई हैं, ड्राइंग रूम में एक ख़ास कोने में जगह उसी मूर्ति के लिए रख छोड़ी है. आप जरूर लाइएगा, मैं गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर भाषण भी तैयार करूंगा.” ऑस्ट्रेलिया में जन्मे-पले बड़े पोते ने कहा था.
”मैं भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ बोलूंगा.” छोटा पोता क्योंकर पीछे रहता!
भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में प्रयासरत सरिता के लिए विदेश में जन्मे-पले बच्चों का यह रूप कम आश्चर्य वाला नहीं था.
ऑस्ट्रेलिया पहुंचते ही दोनों पोते बार-बार सामान खोलने के लिए आगे-पीछे घूम रहे थे. टॉफियों, कपड़ों, खिलौनों से उनको कोई सरोकार नहीं था, गौतम बुद्ध की मूर्ति के निकलते ही दोनों उछल पड़े और जोर से ममी को आवाज देते हुए कहा- ”ममी जी, अब कल की मूर्ति-स्थापना का प्रोग्राम पक्का.”
तभी बहू ने गुलाबी रंग की टसर सिल्क की ‘साड़ी-पेटीकोट-ब्लॉउज’ देते हुए कहा- ”ममी जी, आप कल यही साड़ी पहनिएगा, मैं ऐसी ही हरी साड़ी पहनूंगी.”
हमारे ऑस्ट्रेलिया पहुंचते ही गौतम बुद्ध की मूर्ति-स्थापना हो गई है. कोटि-कोटि धन्यवाद और आशीर्वाद ऐसे बच्चों को, जो आज भी पूर्वजों की धरोहर को सहेजने में प्रयासरत हैं.