गीत
उजड़ गया सिंदूर माँग का, बिंदिया-चूड़ी रोती है
दिवस ढूँढती तुझे निगाहें, रातों में ना सोती हैं।
आती साँस पुकारे तुझको, धड़कन तेरे गुन गाये
कहाँ खो गया साया मेरा, सूरज भी ना बतलाये
हुई बावरी तेरी जोगन, सुध-बुध ये दुनिया भूली
याद तुझे कर लगता ऐसे, वक्त चढ़ाता है सूली
सूख गये नयनों के दीपक, रूठ गयी अब ज्योति है
उजड़ गया सिंगार माँग का, बिंदिया-चूड़ी रोती है।1।
कभी देख नहीं थकती थी मैं, दर्पण में सूरत प्यारी
आज ताकता मुझे आईना, जब मैं सब अपना हारी
इंद्रधनुष से सपने बिखरे, रंग सकल बेनूर हुए
मेरे प्राण मेरे परमेश्वर, जीवनधन जब दूर हुए
विधवा होती सभी सुहागन, कोई अभागिन होती है
उजड़ गया सिंगार माँग का, बिंदिया-चूड़ी रोती है।2।
पल दो पल का दर्द रहा होता तो, मैं ये पी जाती
भार हिमालय का होता तो, उसको हँस के सह जाती
सारे दुख बाँटे थे तुझ संग, पर तू दुख में छोड़ गया
अपने गठबंधन की डोरी, क्यों तू पथ में तोड़ गया?
कैसे दमकेगी ये मुंदरी , टूट गया जब मोती है
उजड़ गया सिंगार माँग का, बिंदिया-चूड़ी रोती है।3।
— शरद सुनेरी