सामाजिक

/ मानव के इस जग में .. /

समाज में सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं। हरेक की अपनी विशिष्टता होती है। वह अपनी विशिष्टता की वजह से माननीय हो जाता है। कुछ लोगों की पहचान होती है तो दूसरों की उपेक्षा। कभी – कभी महत्वपूर्ण लोगों की उपेक्षा भी होती है। लोक में यह भी देखा जाता है कि साथी, सगे संबंधी जो अव्वल दर्जे की पढ़ाई के होते हैं उनमें कई अपने साथी की गरिमा को स्वीकार करने में कष्ट का अनुभव करते हैं। अपने साथी का विजय उनके मन को सहनीय भी नहीं होती है। दूसरा, मनुष्य की प्रगति उसकी वर्ण, जाति, वर्ग पर आधारित है। यह लोगों के बीच बहुत बड़ा अंतर बनकर दिखाई देता है। एक दूसरे के बीच की यह मानसिक प्रवृत्ति नफरत एवं उपेक्षा का कारण बन गयी है। लोगों के बीच यह कभी – कभार ईर्ष्या का रूप धारणा करती है तो जीवन खतरा बन जाता है। इनके बीच में समरसता स्थापित करना भी आसान कार्य नहीं है तो दुरूह भी। साहित्य के क्षेत्र में भी हम इसी विकार को देखते हैं। महत्वपूर्ण रचनाकारों को तथा उनकी रचनाओं को उपेक्षित होने की बात को हम टाल नहीं सकते। कुछ ऐसे रचनाकारों को हम देखते हैं कि वे अपनी रचनाओं से न केवल सामाजिक यथार्थ का बोध जगाये हैं बल्कि सामाजिक बदलाव का प्रबल स्वर भी बने हुए हैं। सामाजिक समरसता बनाये रखनेवाले महान लोगों का प्रयास व्यर्थ नहीं चलेगा। सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में अपनी भूमिका जरूर रहेगा। वैसे ही हम देखेंगे कि जग में छोटा समझनेवालों का भी अपना महत्व है। किसी को बड़ा व छोटा मानना मानसिक विकास की परिणति का तो कदापि नहीं। असल में छोटा, बड़ा तो है ही नहीं। लेकिन लोक व्यवहार के लिए श्रेणियों का विभाजन होना स्वाभाविक है। इस विभाजन से किसी को नुकसान व पीड़ा न हो। मानवीय सामाजिक व्यवस्था में विभाजन की रेखाएँ वर्ण, जाति, लिंग प्रांत, भाषा, प्रांत आदि के रूप में हैं। इससे एक ओर समाजिक जीवन में पीड़ा व दुःख है तो दूसरी ओर सुखी – संपन्नता। सोलहवीं शताब्दी में भक्ति के उस अंधे दौर में सामाजिक चेतना की वाणी देनेवाले रचनाकारों में खान खाना अब्दुल रहीम सर्वमान्य रचनाकार थे। उनका एक दोहा हम यहाँ उल्लेख लेंगे -” रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डारि। जहाँ काम आवै सुई कहा करे तलवारी।।” इस जग में हर वस्तु, व्यक्ति का अपना अलग महत्व होता है। समय के साथ, संदर्भ के साथ उसका मूल्य जाना जाता है।
इस दुनिया में सब कुछ बिकता है। व्यक्ति बिकता है, उसका पद, प्रिष्ठा, मान, सम्मान, अभिमान, ज्ञान सब कुछ बिकता है। खरीदारी जो भी होती है उसका ज्यादा मान होता है। आज के जमाने में मुफ्त में मिली जो भी चीज़ हो वह मूल्यवान नहीं बन पा रही है। पहले पानी हर जगह मुफ्त में मिलता था, मनुष्य ने ही उसे गंदा कर खरीदारी बना दी है। साँस लेने की हवा आज मुफ्त में मिलती है कल यह भी बिक जाएगी। जग की स्वच्छता को मलिन व दूषित अवस्था बना देने में मनुष्य निरंतर सक्रिय बना हुआ है। दुनिया के बाजार में मनुष्य ने ही सब कुछ बिकाऊ बना दिया है।
मनुष्य एक झूठी दौर में चल रहा है। वह अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने व कायम करने के लिए दूसरे को नुकसान पहुँचाने में अपनी क्षमता को विकसित कर रहा है। छीनना, झपटना, लूटी करना, घूसखोरी जैसी मनुष्य की विकृतियाँ पहले से ही चली आ रही हैं। हर समय स्वार्थ अपना रूप किसी न किसी रूप में बदलता रहा है। जिसको मनुष्य अपना समझता है उसे स्वीकार करता है। पराया समझनेवाली चीज कितना ही मूल्यवान क्यों न हो उसे स्वीकार नहीं करता।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), सेट, पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।