गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ज़िंदगी ना रही हादसा रह गया,
जीने मरने का बस सिलसिला रह गया।

कैदखाने में ग़म के यहाँ आज कल,
कैद होकर के क्यूंँ कहकहा रह गया।

मिट गई हर दफ़ा जब भी नफ़रत लिखी,
सिर्फ हर्फ़े मुहब्बत लिखा रह गया।

बीच में झूठ, सच के हमेशा यहाँ
एक टूटा हुआ आईना रह गया।

ज़ख्म हथियारों के भर गए वक्त से,
घाव लफ़्जों का दिल में हरा रह गया।

‘जय’ गलतफ़हमियांँ, दूरियाँ कुछ नहीं,
फ़ासला कौन सा अब बचा रह गया।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से