मंथन
जैसे जैसे चुनावों के दिन
नजदीक आ रहे
लुभावने वादों से
वोटर हैं, रिझाए जा रहे
सौगातों की दिन प्रतिदिन
है झड़ी लग रही
कहां से आएंगे पैसे
सोचने की, बात यह बड़ी ।।
कोई बिजली, पानी के बिल
माफ़ कर रहा
कोई केवल बातों से ही
कमाल कर रहा
जिसको देखो लम्बी लम्बी
हांक रहा है
गिरेबान में नहि कोई अपने
झांक रहा है ।।
बड़ी-बड़ी रैलियों के दौर
फिर शुरू हो गये
सत्ता की चाहत में सब
कोविड नियम भूल गये कथनी-करनी में अंतर
है साफ झलकता
ओमाइक्रान भी इनके
पास आने से डरता ।।
मुफ्तखोर बनाने की प्रतिस्पर्धा
न भर दे कहीं, हममें अकर्मण्यता
रोजगार, नौकरी के अवसर
मिलें सबको
पर मुफ्त में अन्न,धन मिले
केवल अति निर्धन को ।।
ज्यादा सबको खुश करने
का मोह त्यागकर
देश के हित में जो है
बस उसको अपनाकर
आत्मप्रशंसा से बचिए
खुद पर विश्वास कीजिए
राष्ट्र हित के फैंसले
शीघ्रमशीघ्र ले लीजिए ।।
केवल चुनाव का समय नही यह
हम कठिन दौर से गुजर रहे
निज स्वार्थों में पड़कर क्यूं
हम आपस में हैं झगड़ रहे
पड़ोसी है आंखें तरेर रहा
अंदर भी दुश्मन बड़े बड़े
इसलिए सब मिल
मंथन कीजिए
एकजुट हों सब उनसे लड़ें
उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें ।।
— नवल अग्रवाल